उस दोपहर रांची का मौसम खुशनुमा था। धूप खिली थी। हल्की सर्द हवाएं चल रही थीं। मानो सारा वसंत यहां की फिजां में उतर आया हो। यह सर्दियों का मौसम जाने और गर्मियों के आने के बीच का वक्त था। तारीख थी – 30 जनवरी, साल 2021।
मौसम के इस रोमैंटिसिज्म के बीच जब मैं घर से निकला, तो रास्ते में कई मुस्कुराते चेहरे देखे। दुनिया की तकलीफों से बेपरवाह और अपनी शानदार जिंदगी के सपनों के साथ चल रहे लोग। मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा था। मैंने गाड़ी की खिड़कियां खुलवा दीं, ताकि अपने चेहरे पर फ्रेश हवाओं की छुअन महसूस कर सकूं। तब मैं अस्पताल जा रहा था, ताकि अपनी छाती (थोराक्स) की सिटी स्कैन रिपोर्ट कलेक्ट कर सकूं। मैंने एक दिन पहले ही डाक्टर की सलाह पर अपना स्कैन कराया था।
सुबह में पैदल दोपहर में व्हील चेयर
2 फरवरी की सुबह 9 बजे टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई पहुंचा। कागजी औपचारिकताएं पूरी की। फिर डाक्टर देवयानी से मिला। उन्होंने रांची की सिटी स्कैन रिपोर्ट देखी। कुछ और जांच कराने के लिए बोला। छाती में जमा पानी निकालने के लिए उसी शाम मेरा मामूली आपरेशन किया गया और मेरी छाती में प्लास्टिक की पाइप लगा दी गई, जिसके अंतिम सिरे पर थैली थी। छाती का पानी रिस-रिस कर उसमें आने लगा।
अस्पताल के गलियारों में सुबह पैदल घूमने वाला मैं अब व्हील चेयर पर था। मुझे एक्स-रे के लिए ले जाया गया। अस्पताल में कोई बेड खाली नहीं कि मुझे भर्ती किया जा सके। देर रात जेनरल वार्ड में एक बेड खाली हुआ, तो मुझे एडमिट कर लिया गया। अगले दिन मुझे सेमी प्राईवेट वार्ड की बेड मिली। फिर बायोप्सी, पेट स्कैन और दूसरी तरह के जांच किये जाने लगे। फिर 10 फरवरी को पहली कीमोथेरेपी हुई और 11 फरवरी को मुझे हास्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया। हिदायत दी गई कि मुंबई में ही रहना है। तब मेरा मेडिकेशन प्रोटोकॉल तय नहीं किया जा सका था, क्योंकि मेरी मालिक्यूलर रिपोर्ट आनी बाकी थी।
मैं कमजोर महसूस नहीं करना चाहता था
मैं एक गेस्ट हाउस में शिफ्ट हो गया। मेरे साथ मेरे बहनोई चंद्रभूषण थे। दिनभर उनसे बातें करता। अस्पताल जाता, डाक्टर्स से मिलता और वापस गेस्ट हाउस आ जाता। यही दिनचर्या थी मेरी। इस बीच मेरी पत्नी संगीता और पुत्र प्रतीक भी मुझे देखने मुंबई आ गए। पुणे से मेरी बहन गुड़िया और दोनों भांजे भी आए। उऩ दिनों मैं भयानक बुखार से पीड़ित था। वह वक्त बहुत भयावह था। मैं वैसे किसी व्यक्ति के साथ रहना नहीं चाहता था, जिसका चेहरा देखकर मेरी भावनाएं हावी हों और मै कमजोर महसूस करूं। लिहाजा, मैंने पत्नी, बेटे और बहन को 3-4 दिनों में ही उनके शहर वापस भेजा।
18 महीने का मिडेन टाइम
25 फरवरी को मेरी मालिक्यूलर रिपोर्ट आ गई। उस दिन मेरा मेडिकेशन प्रोटोकॉल तय कर दिया गया। मुझे तब देख रहे टीएमएच में मेडिकल आंकोलाजी विभाग के प्रमुख डा. कुमार प्रभाष की टीम के डा सुनील चोपड़े ने तब कहा कि मेरे पास जीने के लिए करीब 18 महीने का मिडेन टाइम है। हालांकि, मेरे इलाज का इंटेंट (उद्देश्य) क्यूरेटिव (उपचारात्मक) न होकर पैलियेटिव (दर्द को न्यून करने वाला) था, मतलब मेरी बीमारी कभी ठीक नहीं होने वाली थी। मेरा इलाज मेरी जिंदगी में कुछ और दिन जोड़ने और इस दौरान मुझे कम-से-कम कष्ट हों, इसके लिए किया जाने वाला था। इसके बाद 2 मार्च के मेरी दूसरी कीमोथेरेपी हुई। 8 मार्च को ओपीडी और 9 मार्च को मै रांची वापस आ गया ताकि आगे की कीमोथेरेपी रांची में ही ले सकूं। अब मैं हर तीन महीने पर मुंबई जाता हूं ताकि अगले तीन महीने के इलाज का प्रोटोकॉल जान सकूं।
कैंसर के साथ 2 साल
अब कैंसर के साथ रहते हुए 2 साल हो गए। इस दौरान मैं कीमोथेरेपी के 39 सत्रों से गुजर चुका हूं। टारगेटेड थेरपी के करीब 700 टैबलेट खाए हैं। कुछ दूसरी बीमारियां भी हो गई हैं। इन सबका इलाज कराते हुए मैं कैंसर को समझ चुका हूं और अपनी जिंदगी जी रहा हूं।
मुझे सिर्फ खांसी थी
कैंसर का पता चलने से पहले मुझे मामूली खांसी थी। मैं उसे दिखाने डाक्टर के पास गया था। हां, उससे कुछ महीने पहले एक बार मेरे थूक में खून का हल्का अंश भी दिखा, लेकिन वो इतना कम था कि मैंने तब उसे इग्नोर कर दिया। जब खांसी का इलाज शुरू हुआ, तो एक्स-रे में छाती में पानी (प्लूरल इफ्यूजन) दिखा। उसे निकालकर उसकी जांच कराई गई। फिर सिटी स्कैन हुआ और पता चला कि लंग कैंसर है। वह बगैर लक्षण मेरे शरीर में आ गया था। बिल्कुल चुपके से। दबे पांव।
क्रमश: जारी
(संपादकीय : राजन/नवल/अनिल)
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