अमेरिका में भारत की तरह बेशक जातिगत विभाजन और अस्पृश्यता नहीं है, लेकिन वहां भी आज़ादी (1776) के पहले से दासों के व्यापार के चलते ही नस्ल या रंग के आधार पर ब्लैक हिस्पैनिक व नेटिव अमेरिकियों के साथ व्यापक रूप से भेदभाव होता रहा। लेकिन कुछ दशक पहले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इन वर्गों के लिए प्रवेश में दाखिले हेतु सकारात्मक पहल की व्यवस्था की गई थी ताकि विश्वविद्यालयों में सामाजिक विविधता बनी रहे। इसके अलावा निजी क्षेत्र तथा सरकारी ठेकों में इनके लिए विशेष प्रावधानों की व्यवस्था की गई, जिसे डाइवर्सिटी सिद्धांत कहा जाता है। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के साथ ही अमेरिकी समाज में फासीवाद का ख़तरा निरंतर बढ़ रहा है और लगता है कि वहां की दक्षिणपंथियों ने वहां की न्यायपालिका को भी अपने नियंत्रण में ले लिया है। अभी हाल ही में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के दाख़िले में नस्लीय आधार पर समानुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण दिए जाने वाले प्रावधानों को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया है।
गौरतलब है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित दो मामलों में अपना फैसला सुनाया था। इनमें से एक मामला स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशनंस बनाम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का था। दूसरे मामले में भी एक पक्ष स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशनंस नामक संगठन ही था और यह मामला यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलीना के खिलाफ था।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने कहा कि “लंबे समय से विश्वविद्यालयों ने ग़लत तरीक़े से यह निष्कर्ष निकाला है कि किसी व्यक्ति की पहचान की कसौटी चुनौतियां, निर्मित कौशल या सीखे गए सबक नहीं, बल्कि उसकी त्वचा का रंग है। नस्ल और जातीयता के आधार पर कॉलेज में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती है, इससे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिभावान छात्रों के दाख़िले के अवसर कम होंगे। हमारा संवैधानिक इतिहास इस विकल्प को बर्दाश्त नहीं कर सकता।”
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के साथ ही इस पर प्रतिक्रियाएं भी आने लगी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो वाइडन ने इस फ़ैसले पर असहमति जताई है। व्हाइट हाउस ने जो वाइडन के हवाले से कहा है कि “उन्हें विविध पृष्ठभूमि और अनुभव वाले को सुनिश्चित करने की अपनी प्रतिबद्धता नहीं छोड़नी चाहिए, जो पूरे अमेरिका को प्रतिबिंबित करते हैं। कॉलेजों को उम्मीदवारों द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों से उबरने का मूल्यांकन करना चाहिए।”
जानकारों का कहना है कि अफर्मेटिव एक्शन की नीति को बदलने से अश्वेत और दूसरे समुदाय के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा तक पहुंच पाना कठिन हो जाएगा तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में श्वेत और एशियाई छात्रों का दबदबा कायम हो जाएगा। कई विश्वविद्यालयों में अफर्मेटिव एक्शन की नीति को पहले ही ख़त्म कर दिया गया है। मसलन, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 1990 के दशक में ही यूनिवर्सिटी में कराए गए एक आंतरिक मतदान के बाद यह नीति ख़त्म कर दी गई थी। अमेरिकी मीडिया में छपे अध्ययनों के मुताबिक़ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के उस क़दम का प्रभाव तुरंत देखा गया। वहां अश्वेत और लैटिन समुदाय (लैटिन अमेरिका से आए लोगों) के छात्रों की संख्या में भारी गिरावट आई। ख़ासकर ऐसा बर्कले और लॉस एंजिल्स में स्थित प्रसिद्ध विश्वविद्यालय परिसर में देखने को मिला। अब वहां ज्यादातर श्वेत और एशियाई समुदायों के ही छात्र दिखाई देते हैं।
वास्तव में 2016 से ही अमेरिकी कोर्ट में दक्षिणपंथ का पलड़ा भारी हो गया था, इसमें तीन न्यायाधीश अफर्मेटिव एक्शन के विरोध में थे। पूर्ववर्ती राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में भी तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति के बाद से ही अमेरिकी न्यायपालिका की स्थिति पूरी तरह दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर मुड़ चुकी है। यही कारण है कि ट्रंप ने इस अदालती फ़ैसले को ‘अमेरिकी इतिहास में एक महान दिन’ करार दिया है। अमेरिका में लंबे समय से विभिन्न उच्चतर शैक्षिणक संस्थानों में अफर्मेटिव एक्शन का समर्थन किया जाता रहा है। इसका उद्देश्य मात्र अमेरिकी समाज में नस्लीय गैर-बराबरी को कम करने और बहिष्करण को ख़त्म करने से नहीं, बल्कि कार्यस्थलों में व्यापक दृष्टिकोण वाले टैलेंट पूल के समावेश को सुनिश्चित करने का प्रयास शामिल था।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर अमेरिकी सीनेटरों सहित विभिन्न सामाजिक समूहों से बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया आ रही है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की पहली अश्वेत महिला जस्टिस केटांजी ब्राउन जैक्सन ने इस आदेश पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखा है कि “यह क़ानूनी आदेश दरार डालने वाला है और सभी के लिए रंग-अंधता की घोषणा करता है, लेकिन कानून द्वारा नस्ल को अप्रासंगिक मान लेने से जीवन में ऐसा नहीं हो जाता।” हार्वर्ड विश्वविद्यालय के साथ अपने पिछले जुड़ाव के कारण जस्टिस जैक्सन ने इस मामले में भाग नहीं लिया। वहीं कोर्ट में पहली हिस्पैनिक न्यायाधीश के रूप कार्यरत में सोनिया सोतोमयोर ने लिखा है कि “यह निर्णय समान सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी को नष्ट कर देता है और शिक्षा में नस्लीय असमानता को और बढ़ाता है।” उन्होंने इस फैसले को दशकों की पूर्ववर्ती और महत्वपूर्ण प्रगति को पीछे ले जाने वाला बताया है। एक देश के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने लंबे अंतराल तक नस्ल के मुद्दों से जूझने में बिताया है। इसके लंबे इतिहास पर गौर करें तो यह अश्वेतों की गुलामी का इतिहास है, जिसका समापन लंबे गृहयुद्ध के बाद ही हो सका था। 1960 के दशक में चले नागरिक अधिकार आंदोलन और हाल के वर्षों में नस्लीय न्याय से संबंधित लोकप्रिय विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जिसमें बड़े पैमाने पर अश्वेतों के ख़िलाफ़ पुलिसिया दमन और हत्याओं का सिलसिला दर्ज है।
न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक उसके द्वारा मई माह में किए गए एक सर्वेक्षण में 49 प्रतिशत अमेरिकियों ने नस्लीय भेदभाव के मद्देनजर समाज में समानता को बढ़ाने को जरूरी मानते हुए अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम को आवश्यक बताया था, जबकि 32 प्रतिशत इससे असहमत थे और 19 प्रतिशत लोगों की इस पर राय नहीं बन पाई थी।
रिपब्लिकन पार्टी के तमाम नेताओं की ओर से इस फ़ैसले को ऐतिहासिक बताया जा रहा है, और मेरिट-आधारित प्रवेश को न्यायपूर्ण फ़ैसला क़रार दिया जा रहा है। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ट्वीट करते हुए लिखा है कि “बेहतर न्यायपूर्ण समाज बनाने की दिशा में अफर्मेटिव एक्शन कभी भी मुकम्मल जवाब नहीं था, लेकिन उन छात्रों की पीढ़ियों के लिए जिन्हें अमेरिका के अधिकांश प्रमुख संस्थानों से पूर्व-नियोजित तरीके से बहिष्कृत रखा गया था– इसने हमें यह दिखाने का मौका दिया कि हम मेज पर एक सीट की पात्रता से कहीं अधिक योग्य हैं। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के मद्देनजर समय आ गया है कि अब हम [अश्वेत] अपने प्रयासों को दोगुना करें।”
वास्तव में अमेरिकी न्यायालय का योग्यता का तर्क उसी तरह का है, जिस प्रकार भारत में दलित पिछड़ों और जनजाति समाज को आरक्षण देने के संबंध में कहा जाता है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले भारत के बहुजन चिंतकों के बीच चिन्ता होना स्वाभाविक है। ऐसा देखा जा रहा है कि मुख्यधारा इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया इस फ़ैसले का जबरदस्त समर्थन कर रहे हैं ,जो पहले भी आरक्षण को समाप्त या सीमित करने की बात करते रहे हैं। वैसे भी अमेरिका में होनेवाली किसी घटना का असर वैश्विक होता है तथा भविष्य में इसके भारत में पड़ने वाले प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)