h n

कांवर यात्रा : दलित-बहुजनों को हिंदुत्व से जोड़ने की आरएसएस की रणनीति

कांवर लेकर लंबी पदयात्रा कर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं हैं। पहले बिहार के सुल्तानगंज से पानी लेकर देवघर (वर्तमान में झारखंड में शामिल) जाने की परंपरा बनिया समुदायों के लोगों तक सीमित थी। इसमें वृद्धि 1990 के दशक में हुई जब अन्य जाति-समुदायों के लोग जाने लगे। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

सावन का महीना शुरू होते ही पूरे उत्तर भारत में खासकर उत्तर प्रदेश तथा बिहार के आस-पास भारी संख्या में कांवरिए विभिन्न शिव मंदिरों में जल चढ़ाने के लिए निकल पड़ते हैं। इन कांवरियों में दलित-बहुजन सर्वाधिक होते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक मित्र बता रहे थे कि बिहार तथा झारखंड के जनजाति इलाकों के आदिवासी भी अब बड़ी संख्या में इसमें शामिल हो रहे हैं। पिछले वर्ष कांवरियों के ऐसी तस्वीरें वायरल हुई थीं, जिसमें कुछ दलित-कांवरिए अपने कांवर में डॉ. आंबेडकर के भी चित्र लगाए हुए थे। 

इधर दिल्ली में ही जिस सोसायटी में मैं रहता हूं, तथा उसके आस-पास के अनेकानेक लोग कांवर यात्रा पर निकल गए हैं, जिनमें दूध-सब्जी बेचने वाले, ठेला लगाने वाले और सिक्यूरिटी गार्ड आदि शामिल हैं। इनमें शतप्रतिशत लोग दलित-बहुजन हैं। आज देश भर में संघ परिवार द्वारा दलित-बहुजनों के हिंदूकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, उसमें अब कांवर यात्रा जैसे उत्सवों की महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है।

कांवर लेकर लंबी पदयात्रा कर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं हैं। पहले बिहार के सुल्तानगंज से पानी लेकर देवघर (वर्तमान में झारखंड में शामिल) जाने की परंपरा बनिया समुदायों के लोगों तक सीमित थी। इसमें वृद्धि 1990 के दशक में हुई जब अन्य जाति-समुदायों के लोग जाने लगे। लेकिन देखते ही देखते यह एक राष्ट्रीय परिघटना में बदल गई तथा एक दशक से इसका प्रयोग संघ परिवार हिंदुत्व के प्रचार के लिए करने लगा।

कांवर यात्रा के बहाने उन्माद को प्रश्रय

करीब दो दशक पहले की बात है। दिल्ली से प्रकशित एक हिंदी दैनिक के चर्चित संपादक ने अपने संपादकीय में लिखा था कि “यह देशव्यापी कांवर यात्रा पंजाब में ख़ालिस्तानी आंदोलन तथा भिंडरवाला के उदय के जवाब में शुरू हुई थी।” बात जो भी हो, लेकिन यह बात सही है कि इसको बढ़ावा देने में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है। पूरे उत्तर भारत में सावन शुरू होते ही इसे लेकर तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस अधिकारियों की बैठकें शुरू हो जाती हैं। आम यात्रियों के लिए बड़े-बड़े राजमार्ग बंद कर दिए जाते हैं। अगर आप बस या कार से दिल्ली से मेरठ या देहरादून जाना चाहते हैं, तो आप नहीं जा सकते, क्योंकि कांवरियों को छोड़कर अन्य सभी के लिए यह मार्ग बंद कर दिया जाता है। यही स्थिति गोरखपुर मंडल से फैजाबाद, बनारस और इलाहाबाद जाने वाले मार्गों की होती है। इस यात्रा का बाज़ारीकरण बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। ‘बोल बम’ और ‘जय श्रीराम’ जैसे नारों वाले टी-शर्ट और कांवर यात्रा से संबंधित सभी सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है।

गाजियाबाद से दिल्ली तक के इलाकों में जगह-जगह कांवरियों के ठहरने और खाने-पीने के लिए लगे तंबुओं में बज रहे कानफोड़ू संगीत से इतना शोर-शराबा होता है कि आस-पास के लोगों का रहना-जीना मुश्किल हो जाता है। दूसरी ओर इस विशाल उन्मादी जनसैलाब से राजनीतिक फ़ायदा लेने के लिए सभी राजनीतिक दलों में होड़-सी लग जाती है। दिल्ली में तो भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के लोग इनके खाने-पीने और ठहरने के लिए मुफ़्त व्यवस्था करते हैं। लेकिन इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए किया है। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है।

दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हेलीकॉप्टर से कांवरियों पर फूल बरसाने का कार्यक्रम शुरू किया। कुछ राजनीतिक दलों ने इसका छिट-पुट विरोध किया, लेकिन कोई बड़ा विरोध सामने नहीं आया। सबसे ख़तरनाक बात यह हुई है, कि इस यात्रा के बहाने धर्म, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को आपस में मिलाया जा रहा है। कांवरिए बड़े पैमाने पर कांवर के साथ-साथ तिरंगा झंडा लेकर चल रहे हैं और ‘बोल बम’ के नारे के साथ-साथ ‘जय श्रीराम’ व ‘भारत माता की जय’ के नारे भी लगा रहे हैं। 

इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि इसके नाम पर उत्तर प्रदेश में सरकार ने पूरे एक महीने मांस-मछली की दुकानों को बंद करवा दिया है। इसके अलावा गोकशी के शक में लोगों को गिरफ़्तार किया जा रहा है। बतौर उदाहरण यह कि मुजफ्फरनगर में करीब 90 लोगों पर धारा 151 के तहत चालान करके जेल भेज दिया गया है तथा करीब पांच सौ कारोबारियों को चिह्नित किया गया है, जिनके ऊपर कार्यवाही होगी। 

जनजाति इलाकों में आदिवासियों के अपने पर्व और त्योहार होते हैं, जिनका संबंध प्रकृति से होता है। लेकिन  संघ परिवार इनके बीच वनवासी कल्याण आश्रम जैसी अनेक संस्थाएं बनाकर इनके पर्व-त्योहार का हिंदूकरण करने की कोशिश कर रहा है और इन्हें काफी हद तक इसमें सफलता भी मिली है। मध्य प्रदेश के कई इलाकों में कई जगह इन्हें हनुमान का वंशज बताकर रामकथा से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

संबंधित आलेख

जेएनयू में जगदेव प्रसाद स्मृति कार्यक्रम में सामंती शिक्षक ने किया बखेड़ा
जगदेव प्रसाद की राजनीतिक प्रासंगिकता को याद करते हुए डॉ. लक्ष्मण यादव ने धन, धरती और राजपाट में बहुजनों की बराबर हिस्सेदारी पर अपनी...
बिहार : भाजपा के सामने बेबस दिख रहे नीतीश ने की कमर सीधी, मचा हंगामा
राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना और बिहार में बढ़ा हुआ 65 फीसदी आरक्षण लागू कराना जहां नीतीश के लिए बड़ी चुनौती है तो भाजपा...
कोटा के तहत कोटा ले लिए जातिगत जनगणना आवश्यक
हम यह कह सकते हैं कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय में केंद्र सरकार को उसी तरह की जातिगत जनगणना करवाने का निर्देश दिया गया...
सिंगारवेलु चेट्टियार का संबोधन : ‘ईश्वर’ की मौत
“गांधी का तथाकथित अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम, जनता में धार्मिक विश्वासों को मजबूत करने का एक उपकरण मात्र है। लगभग 6 करोड़ जनसंख्या वाले अछूत...
एक आयोजन, जिसमें टूटीं ओबीसी की जड़ताएं
बिहार जैसे राज्‍य में जातीय दायरे की परंपरा विकसित होती जा रही है। आमतौर पर नायक-नायिकाओं की जयंती या पुण्‍यतिथि उनकी जाति के लोग...