अभी 2024 का लोकसभा चुनाव दूर है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की राजनीति में सरगर्मी पैदा होनी शुरू हो चुकी है। प्रदेश की सड़कों पर लगे होर्डिंग अभी से आगामी प्रधानमंत्री की घोषणा करने में लग गए हैं। अभी कुछ दिन पहले सपा नेता अखिलेश यादव को देश का आगामी प्रधानमंत्री घोषित करने वाले होर्डिंग भी लगे। थोड़े समय बाद राहुल गांधी को प्रधानमंत्री और अजय राय द्वारा खुद को मुख्यमंत्री घोषित करने वाला होर्डिंग लगाया गया। खुद, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी न करते हों, दक्षिणपंथी राजनीति में उन्हें अगले विकल्प के रूप में जरूर देख रहा है और उन्हें मॉडल की तरह पेश भी कर रहा है।
वहीं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती का चुनावी रिकार्ड पिछले एक दशक से लगातार नीचे की ओर गया है। एक समय था, जब वह दिल्ली की गद्दी का रास्ता चौड़ा करते हुए आगे बढ़ रही थीं। जो अब निश्चित ही बेहद संकरा हो चुका है।
बताते चलें कि उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति में, खासकर चुनाव के समीकरणों के संदर्भ में एक निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। यह एक प्रयोग-स्थली की तरह है। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने यहां समाजवादी राजनीति और गांधीवादी समाजवाद की बुनियाद को कायम किया। इसके बाद, किसान राजनीति की पहलकदमी हुई और चौधरी चरण सिंह का उद्भव हुआ। वर्ष 1980-90 के दशक में कांग्रेस की आधारभूमि को खिसकाते हुए कांशीराम ने वोट की गणित को सत्ता की गणित में बदल दिया। 1990 के बाद के दौर में, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा और बजरंग दल को जमीन पर उतारकर आरएसएस ने भाजपा की जमीन बनानी शुरू किया और खुद भाजपा ने परंपरागत ब्राह्मण-बनिया घेरे से बाहर जाकर खुद को पिछड़े समूहों के साथ खड़ा किया। और अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद उसने एक निर्णायक वोट पर अपनी पकड़ बना ली।
इस मामले में भाजपा ने बेहद आक्रामक रुख अपनाया और कथित तौर पर हिंदू वोट की दावेदारी के लिए चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व देने की परंपरा को भी तोड़ दिया। निश्चित ही, वोट की गणित को लेकर जो जोड़-घटाव था, वह किसी कागज के पन्नों पर नहीं था। वह एक विविधता से भरे समाज और उसकी राजनीति पर चल रहा था। इस तरह की राजनीति निश्चित ही समाज और राजनीति को प्रभावित कर रही थी। इस विविधता में धर्म का प्रयोग निश्चित ही एक हिंसक गोलंबदी के लिए भी हो रहा था। इन सबका नतीजा यही रहा कि उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के आधार पर हिंसक गतिविधियां कभी भी नहीं रुकीं और इन सबके पीछे होने वाली राजनीति को खारिज नहीं किया जा सकता है।
उपरोक्त स्थितियां अभी भी बदली नहीं हैं। वे अपने-अपने समीकरणों के साथ चल रही हैं। उत्तर प्रदेश की जमीन पर विविध पार्टियां अपनी आधारभूमि बनाने में अभी से लग गई हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा इस संदर्भ में एक लंबी रणनीति पर काम कर रही है।
वोट के लिए ‘धार्मिक समीकरण’
मसलन, गत 12 अक्टूबर, 2023 को भाजपा द्वारा लखनऊ में ‘सूफी संवाद अभियान’ शुुरू करने की घोषणा हुई। इसमें 100 दरगाहों के 200 सूफी शामिल हुए। लखनऊ के अधिवेशन में नारा दिया गया– “न दूरी है, न खाई है, मोदी हमारा भाई है”। इन दो सौ सूफियों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे लोगों को समझाएं कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की योजनाएं और नीतियां मुसलमानों के पक्ष में हैं।
आनंद बाजार पत्रिका (एबीपी) के डिजिटल न्यूज सर्विस के 12 अक्टूबर, 2023 के अनुसार उत्तर-प्रदेश के दस हजार दरगाहों के प्रमुखों के साथ भाजपा संवाद स्थापित करेगी और उनके साथ बैठकों का आयोजन किया जाएगा। भाजपा यह काम सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, देश के अन्य 22 राज्यों में भी आयोजित करेगी।
इसके पहले पीउ रिसर्च, 2011 ने पाया था कि देश के 37 फीसदी मुसलमान खुद को सूफी मत से जोड़ते हैं।
उत्तर प्रदेश सूफी मत के लिहाज से एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इस्लाम की दार्शनिक अवस्थिति को लेकर चली बहसों में यहां के विविध धार्मिक समूहों यथा– देवबंद, बरेलवी और जमाती ने एक महत्वूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। मसलन, शिबली नोमानी के नेतृत्व में शिक्षा के ‘राष्ट्रीय स्वरूप’ को आधारभूमि दी गई। इसी तरह से अलीगढ़ विश्वविद्यालय का जन्म भी ऐसी ही बहसों का नतीजा था। देवबंद आंदोलन और बरेली के अहमदिया आंदोलन भी इस्लाम में धार्मिक दार्शनिक बेचैनियों को व्यक्त करती हैं। निश्चित ही भारत की भूमि पर इस्लाम की जिस दार्शनिक अवधारणा ने सबसे अधिक सामाजिक भूमि में पैठ बनाई, वह सूफीवाद ही है। इसने एक तरफ गरीबों का हाथ पकड़ा तो दूसरी ओर हमेशा सत्ता के पक्ष में दुआएं मांगता रहा।
भारत की भक्ति परंपरा और सूफीवाद, दोनों ने अपने-अपने धर्म की पुस्तकों की जटिलता और रूढ़ि से बाहर आकर एक नई धारा को जन्म दिया। भारत की भक्ति परंपरा और धार्मिक रूढ़िवादी प्रावधानों की कठोर आलोचना करके डॉ. आंबेडकर ने दलित समुदाय को आधुनिक राजनीति की जमीन और दार्शनिक अवस्थिति प्रदान की। लेकिन, पसमांदा समुदाय को आगे ले जाने वाली आधुनिक धारा पैदा नहीं हो सकी। देश के बंटवारे ने जरूर उन्हें एक दोयम दर्जे की हैसियत में पहुंचाने की प्रक्रिया में डाल दिया।
दरअसल, सूफी-पीर-फकीरों को साधने का भाजपा का यह प्रयास सूफीवाद से जुड़े पसमांदा मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में ले आने की कोशिश है ताकि मुसलमानों का भाजपा के पक्ष में पड़ने वाला वोट का प्रतिशत बढ़ सके।
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 19.26 प्रतिशत है। यह प्रतिशत आज भी लगभग स्थिर अवस्थिति में है। मुसलमानों की स्थिति बदहाल है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा की सीटों में 70 ऐसी सीटें हैं, जिनमें मुस्लिम आबादी 20 से 30 प्रतिशत है। वहीं लोकसभा की 18 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोट का काफी असर है। यदि दलित, ओबीसी और मुसलमान के प्रभाव वाली सीटों को देखें, तब 80 में से 47 ऐसी सीटें हैं, जिन पर तीनों समुदाय की आबादी का प्रभावकारी असर है।
भाजपा ने लंबे समय तक बसपा और सपा के परंपरागत दलित और ओबीसी वोट आधारों के बाहर रह गये समुदायों पर चुनावी रणनीति के तहत काम किया। इससे एक ओर सवर्ण वोटों पर पकड़ बनाते हुए भाजपा ने दलित और ओबीसी में ‘सांस्कृतिकरण’ की अवधारणा पर अभियान चलाया और वोट के पुराने समीकरणों को तोड़ते हुए लोकसभा और विधान सभा के चुनावों में व्यापक सीटें हासिल की। लेकिन, पसमांदा मुस्लिम के बीच भाजपा का सूफीवाद अभियान उसे अधिक कारगर लग रहा है। भाजपा अन्य धार्मिक समूहों को हिंदुत्व की छाया में लाने का प्रयास लंबे समय से करती आ रही है। पंजाब में राष्ट्रीय सिख संगत के नाम से एक पहलकदमी आरएसएस ने की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य सिख धर्म को हिंदू धर्म के एक पंथ की तरह बताना था। इसे लेकर गुरूद्वारा कमेटियों ने अपना विरोध जताया था। लेकिन, आरएसएस ने अपना प्रयास नहीं छोड़ा और नामधारी पंथ से जुड़े अन्य धाराओं के साथ मेज-जोल का प्रयास और सहयोग जारी रहा।
पंजाब और हरियाणा में ऐसे धर्मगुरूओं को खुला समर्थन और चुनाव के समय में उनका प्रयोग हम पिछले कुछ सालों की घटनाओं में देख सकते हैं। धर्म, राज्य और राजनीति का यह प्रयोग भाजपा ने पहले भी किया है।
क्रमश: जारी
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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