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बिहार जाति आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट से समानुपातिक प्रतिनिधित्व का सवाल हुआ मुखर

मुख्यमंत्री का यह एलान इसलिए भी गौर तलब है क्योंकि राज्य सरकार की नौकरियों में विभिन्न जातियों/समुदायों की समानुपातिक हिस्सेदारी का सवाल जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022-23 के सार्वजनिक होने के बाद मुखर होकर सामने आया है। पढ़ें, यह रपट

बीते 7 नवंबर, 2023 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में जाति आधारित गणना की सामाजिक और आर्थिक रिपोर्ट को प्रस्तुत किया। इसके दो दिन बाद 9 नवंबर को बिहार विधानसभा में राज्य में दलित-बहुजनों के आरक्षण का कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए जाने संबंधी राज्य द्वारा प्रस्तुत विधेयक को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। 

जाहिर तौर पर इसकी पृष्ठभूमि सरकार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में शामिल है। इस बीच विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह भी एलान किया कि यदि आवश्यकता महसूस हुई तो राज्य सरकार आरक्षण का दायरा और बढ़ाएगी। मुख्यमंत्री का यह एलान इसलिए भी गौर तलब है, क्योंकि राज्य सरकार की नौकरियों में विभिन्न जातियों/समुदायों की समानुपातिक हिस्सेदारी का सवाल जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022-23 के सार्वजनिक होने के बाद मुखर होकर सामने आया है। हालांकि रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं है कि निर्णायक पदों पर किस जाति समूह के कितने लोग काबिज हैं। इसकी प्रबल संभावना है कि इनमें ऊंची जाति के लोगों की हिस्सेदारी अधिक होगी। 

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी 20 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.7 प्रतिशत हो गई है। इसे देखते हुए राज्य सरकार अनुसूचित जाति को 20 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति को 2 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही है। इसके पहले अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजापति को एक प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था। इसी तरह राज्य सरकार ने पिछड़ा वर्ग (18 प्रतिशत) और अति पिछड़ा वर्ग (25 प्रतिशत) को मिलाकर 43 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया। इसके पीछे कारण यह बताया जा रहा है कि इन दोनों वर्गों की आबादी 60 प्रतिशत से अधिक हो गई है। 

पटना स्थित मुख्य सचिवालय

आरक्षण के कोटे में बढ़ोत्तरी की एक बड़ी वजह सरकारी नौकरियों में दलित-बहुजन समुदायों की अपर्याप्त हिस्सेदारी का सवाल है। यह संज्ञान में रखा जाना चाहिए कि बिहार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण 1950 से लागू है। जबकि पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्ववाली जनता पार्टी सरकार द्वारा मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा के आलोक में किया गया। इसके बावजूद बिहार सरकार द्वारा जारी रपट बताती है कि सरकारी नौकरियों में ऊंची जातियों के लोगों की हिस्सेदारी उनकी आबादी के अनुपात में दुगनी है। 

उदाहरण के लिए बिहार में ऊंची जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ, सैयद, शेख और पठान) की आबादी कुल आबादी का 15.3828 प्रतिशत है। इस हिसाब से राज्य सरकार की नौकरियों में इन जातियों की हिस्सेदारी 3 लाख 15 हजार 251 होनी चाहिए। लेकिन मौजूदा हिस्सेदारी 6 लाख 41 हजार 281 है। यानी वाजिब हिस्सेदारी से 3 लाख 26 हजार 30 अधिक। वहीं पिछड़ा वर्ग (जिसमें यादव, कोइरी, कुर्मी आदि शामिल हैं) की कुल आबादी में हिस्सेदारी 27.1286 प्रतिशत है और राज्य सरकार की नौकरियों में उसकी मौजूदगी 6 लाख 21 हजार 481 है। वाजिब हिस्सेदारी की बात करें तो यह संख्या 5 लाख 55 हजार 965 है।

असमान प्रतिनिधित्व का बड़ा अंतर अत्यंत पिछड़ा वर्ग के मामले में दिखता है। मसलन, राज्य की आबादी में इस वर्ग की कुल हिस्सेदारी 36.0148 प्रतिशत है और सरकारी नौकरियों में इनकी मौजूदगी 4 लाख 61 हजार 725 है, जबकि वाजिब हिस्सेदारी 7 लाख 38 हजार 77 होनी चाहिए। इस प्रकार हम पाते हैं कि अत्यंत पिछड़ा वर्ग को हिस्सेदारी 3 लाख 21 हजार 352 कम प्राप्त है।

आबादी में हिस्सेदारी (प्रतिशत में)सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी (संख्या में)आबादी के समानुपात में नौकरियों में हिस्सेदारी (आदर्श स्थिति)
ऊंची जातियां15.3828641281315251
पिछड़ा वर्ग (बीसी-2)27.1286621481555965
अत्यंत पिछड़ा वर्ग (बीसी-1)36.0148461725738077
अनुसूचित जाति19.6518291004402738
अनुसूचित जनजाति1.68243016434478
अन्य प्रतिवेदित जातियां0.139637152860
कुल10020493702049370

इसी तरह हम पाते हैं कि अनुसूचित जाति को जहां 4 लाख 2 हजार 738 पदों पर काबिज होना चाहिए था, वे 2 लाख 91 हजार 4 पदों पर कार्यरत हैं। यानी वाजिब पदों की संख्या से 1 लाख 11 हजार 734 कम। हालांकि अनुसूचित जनजाति के मामले में यह अंतर केवल 4314 पदों का है। वर्तमान में अनुसूचित जनजाति के 30 हजार 164 सदस्य बिहार सरकार के अधीन कार्यरत हैं और आबादी के हिसाब से इनकी वाजिब हिस्सेदारी 34 हजार 478 की बनती है।

बहरहाल, राज्य सरकार द्वारा पेश और विधानमंडल द्वारा यथापारित विधेयक यदि लागू होता है (चूंकि इस तरह के मामले में ऊंची जातियों के द्वारा कानूनी अड़ंगा लगाया जाता रहा है) तब यह उम्मीद की जा सकती है कि अगले दो दशकों में बिहार में विभिन्न जाति/समुदायों को वाजिब हिस्सेदारी मिल सकेगी।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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