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संस्कृत भाषा भारत की पालि और प्राकृत से पुरानी नहीं!

सवाल उठता है कि आर्यों के साथ आई संस्कृत सबसे प्राचीन भाषा कैसे बन सकती है? यह संदर्भ हमें संकेत देता है कि तथाकथित सतयुग काल्पनिक कथाओं को रचने का युग था, जबकि आज का कलियुग उन कल्पनाओं को विच्छेदित करने और सत्यशोधन का है। बता रहे हैं बापू राउत

भारत की सबसे प्राचीन भाषा कौन-सी है? इस संबंध में बहसें होती रहती हैं। यह इस कारण कि देश में प्राकृत, द्रविड़, मुंडारी, संस्कृत और कई अन्य भाषाएं मौजूद हैं। इस संबंध में हिंदू धर्मावलंबियों का मानना ​​है कि संस्कृत सबसे प्राचीन भाषा है और अन्य भाषाओं का निर्माण संस्कृत से हुआ है। इसमें कुछ तथाकथित इतिहासकार भी शामिल हैं जो तथ्यात्मक साक्ष्यों को देखे बिना भावुकतावश ‘इतिहासकार’ के रूप में अपनी पेशागत ईमानदारी से विमुख हो जाते हैं। 

दरअसल, भारत में एक समूह है जो कहता है कि उन्हें सबूतों और तथ्यात्मक तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है। वे जो इतिहास बताते हैं, वही सच हैं। देश में ऐसा माननेवालों की बड़ी संख्या है। 

सनद रहे कि 13वीं शताब्दी में भारत में अरबियों के आगमन के बाद उर्दू की नींव रखी गई। इससे पहले छठी शताब्दी ईसा पूर्व के समय तक उत्तर-पश्चिम भारत (कांधार और पंजाब प्रांत) में ईरान से आए लोग बसने लगे थे। ईरानी साम्राज्य से आए लोगों की भाषा संस्कृत थी। जबकि उस क्षेत्र के स्थानीय लोगों में प्राकृत और पालि भाषा प्रचलित थी। 

यदि भाषाओं के सतत विकास पर गौर करें तो इस तथ्य की पुष्टि होती है कि संस्कृत प्राकृत और पालि से अपेक्षाकृत नई भाषा है, क्योंकि वेदों की भाषा, संस्कृत, ईरान में अवेस्ता ग्रंथों की भाषा से इतनी मिलती-जुलती है कि अवेस्ता के कई छंद थोड़े से बदलाव के साथ वेदों के छंद बन जाते हैं। जैसे अवेस्ता के चार भाग हैं, वैसे ही वेद के भी चार भाग हैं। यानी अवेस्ता का अर्थ है वेद और वेद का अर्थ है अवेस्ता। लेकिन भारतीय इतिहासकारों और भाषाविदों ने संस्कृत को सत्ययुग की सर्वश्रेष्ठ प्राचीन भाषा घोषित कर दिया। जबकि वस्तुतः यह सत्य से परे है और ऐतिहासिक षड्यंत्र की ओर इशारा करता है। 

व्यावहारिक तौर पर यह सत्य है कि कोई भाषा यदि सुसंगत हो तो विकसित होते-होते वह बड़े समुदाय की भाषा बन जाती है। लेकिन संस्कृत के मामले में स्थिति पूरी तरह उलट है। संस्कृत केवल धार्मिक ग्रंथों तक ही सीमित रह गई। सामाजिक स्तर पर वह ब्राह्मण वर्ग की भाषा रही है। यह जनभाषा का रूप अख्तियार नहीं कर सकी। इससे यह ज्ञात होता है कि संस्कृत किसी भी समय महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय भाषा नहीं थी।

कुछ लोग संस्कृत को देवभाषा (भगवान की भाषा) मानते हैं। लेकिन पुरानी फ़ारसी किताब ‘शाहनामा’ (1010 ई.) में फिरदौसी कहते हैं कि देव एक कबीले का नाम है, जो घोड़े पर सवार होते थे। वे आक्रामक हैं और लड़कियों का अपहरण कर लेते थे। यही वे कबीले हैं, जो अपने साथ संस्कृत को लाए थे। आर्यों के आगमन से पहले भारत में कई भाषाएं मौजूद थीं। 

एक अशोक स्तंभ पर उत्कीर्णित ब्राह्मी लिपि

फिर सवाल उठता है कि आर्यों के साथ आई संस्कृत सबसे प्राचीन भाषा कैसे बन सकती है? यह संदर्भ हमें संकेत देता है कि तथाकथित सतयुग काल्पनिक कथाओं को रचने का युग था, जबकि आज का कलियुग उन कल्पनाओं को विच्छेदित करने और सत्यशोधन का है।

गौर तलब है कि भाषा को स्थानिक दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। जैसे गुजराती गुजरात की और तमिल तमिलनाडु की भाषा है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि संस्कृत का संबंध भारत के किस क्षेत्र से रहा है? जबकि पालि और प्राकृत का भूगोल बुद्ध के पूर्व से लेकर मौर्य-सप्तवाहन तक था। यदि संस्कृत गौरवशाली एवं लोकप्रिय भाषा होती तो निश्चित तौर पर उसका भूगोल एवं समय निर्धारित होता। 

कहना अतिरेक नहीं कि संस्कृत आम लोगों की बोलचाल की भाषा कभी नहीं रही। ईसा के बाद के कुछ शिलालेखों को छोड़कर, ईसा पूर्व के किसी भी शिलालेख की भाषा संस्कृत नहीं है। कुछ ब्राह्मण विद्वानों ने मान लिया है कि संस्कृत से पालि, पालि से प्राकृत और प्राकृत से आज की भाषाओं का विकास हुआ। लेकिन पालि में संस्कृत का कोई शब्द नहीं है। संस्कृत के शब्द प्राकृत में भी नहीं मिलते। यदि संस्कृत पाली से पहले की लोकभाषा होती, तो संस्कृत शब्द पालि और प्राकृत में शामिल हो गए होते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। इसके विपरीत आज कुछ लोकप्रिय भाषाओं में संस्कृत के शब्द आते हैं। इससे साबित होता है कि संस्कृत आधुनिक भाषा है। 

एक उदाहरण यह कि पालि में सम्राट अशोक का नाम असोक है। लेकिन संस्कृत साहित्य में इसे अशोक लिखा गया है। अर्थात असोक मूल शब्द है और अशोक बाद में बना है। अतः यह कहा जा सकता है कि संस्कृत की रचना पालि और प्राकृत के शब्दों को शामिल करके या फिर उन्हें अपभ्रंश करके की गई है। 

मध्य काल में सम्राट अशोक की लिपि एक पहेली बनी रही। फ़िरोज़शाह तुगलक अशोक के दो बड़े स्तंभों को दिल्ली लेकर आया था। लेकिन तब कोई भी विद्वान इसे पढ़ नहीं सका। अंततः जेम्स प्रिन्सेप ने कहा कि अशोक के शिलालेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ऋग्वेद की रचना मौर्य काल के बाद हुई थी।

संदर्भ ग्रंथ : 

  1. ‘इतिहास का मुआयना’, डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. ‘भाषा, साहित्य और इतिहास का पुनर्पाठ’, डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. ‘दी इंडियंस, हिस्ट्रीज ऑफ अ सिविलाइजेशन’, संपादक – जी.एन. डेवी, टोनी जोसेफ, रवि कोरिसेट्टर, रूपा पब्लिकेशंस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड
  4. ‘व्हीच ऑफ अस आर आर्यन्स?’; काई फ़्रीस, माइकल विट्ज़ेल, राज़िब खान, रोमिला थापर, जया मेनन; अलेफ बुक कंपनी
  5. ‘दी हिंदू’, वेंडी डोनिगर, पेंगुइन इंडिया 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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