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तो क्या सचमुच नफरत नहीं फैलाएंगी भारतीय मीडिया कंपनियां?

एनबीडीएसए ने बीते 28 फरवरी, 2024 को एक साथ तीन चैनलों के खिलाफ सात आदेश पारित किए। इनमें यह कहा गया कि इन चैनलों ने खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और वे धर्म के आधार पर नफरत फैलाने के लिए दोषी हैं। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

भारत में मीडिया कंपनियों के टीवी चैनलों की संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन (एनबीडीए) ने न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल स्टैंडर्ड ऑथोरिटी (एनबीडीएसए) नामक अपना प्राधिकरण स्थापित कर रखा है।  इस संगठन ने बीते 28 फरवरी, 2024 को एक साथ तीन चैनलों के खिलाफ सात आदेश पारित किए। इनमें यह कहा गया कि इन चैनलों ने खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और वे धर्म के आधार पर नफरत फैलाने के लिए दोषी हैं। बताया जा रहा है कि यह संस्था नफरत फैलाने वाली खबरों के आरोप को सही पाने पर हद से हद इनके खिलाफ जुर्माना कर सकती है। जबकि समाज में नफरत फैलाने की कोशिश के आरोप में मुकदमे और सजा का कानूनन प्रावधान है। जुर्माना लगने के बावजूद क्या मीडिया कंपनियों के टीवी चैनल नफरत फैलाने से बाज आ सकते हैं और खास तौर से तब 2024 में लोकसभा का चुनाव की तैयारी चल रही है? 

खुद एनबीडीएसए ने यह माना है कि चैनलों द्वारा नफरत फैलाने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह बात उसने 11 नवंबर, 2022 को नफरती भाषण के विरुद्ध सावधान करते हुए अपने सदस्य चैनलों से कहा था कि मीडिया का काम लोगों को देश और समाज में जो कुछ घटित हो रहा है, उसकी सही-सही जानकारी देना है और लोगों को जागरुक करना है। एनबीडीएसए आगे लिखता है कि यह देखा जा रहा है कि चैनलो में धर्म, जाति और लिंग के आधार पर नफरती भाषा का इस्तेमाल बढ़ा है।

एनबीडीएसए के बारे में   

हिंदी में इस संस्था को इस रुप में समझ सकते हैं कि यह टीवी चैनलों व डिजिटल चैनलों के द्वारा खुद की बनाई संस्था है, जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. के. सिकरी हैं और सदस्यों में दूसरे महत्वपूर्ण पदों से सेवानिवृत अधिकारी हैं। वैसे स्वतंत्रता के बाद  जाति और धर्म के आधार पर नफरत फैलाना कानूनन अपराध की श्रेणी में आता है। इसके खिलाफ थाने में शिकायत की जाती है। न्यायालयों में सुनवाई होती है। नफरत वाले भाषणों के आरोप में कई लोगों को सजा सुनाई गई है। लेकिन मीडिया कंपनियां इस तरह के अपराधों से मुक्त मानी जाती है। मीडिया कंपनियों के चैनल अपने खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानते है। 

क्या खुद के आचार संहिता का पालन करेगी भारतीय मीडिया?

मीडिया  कंपनियां खुद के लिए आचार संहिता बनाने और उसका पालन करने के लिए भरोसा देती हैं। लेकिन मीडिया कंपनियों के पास खुद की आचार संहिता है कि वे किस तरह से लोगों को खबरें देंगीं। वे अपनी कसौटी पर खरी उतर रही या नहीं, इसकी निगरानी करने के लिए मीडिया कंपनियों ने ही यह संस्था बनाई है, जिसे एनबीडीएसए कहा जाता है। 

नफरत के खिलाफ आदेश 

बीते 28 फरवरी को जिन चैनलों के खिलाफ इस संस्था ने आदेश दिए हैं, उनमें इंडिया टूडे ग्रुप का ‘आज तक’, अंबानी की कंपनी ‘नेटवर्क 18’ का ‘न्यूज 18  इंडिया’ और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ग्रुप से जुड़ा ‘टाइम्स नाऊ नवभारत’ है। ‘न्यूज 18  इंडिया’  ने “लव जेहाद बहाना, एक मज़हब निशाना?” जैसे चार हेडलाइन्स के साथ 16 नवंबर, 2022 से 21 नंवबर, 2022 तक कार्यक्रम प्रसारित किए।  ‘टाइम्स नाऊ नवभारत’ ने तो इसे ‘लव तो बहाना है… हिंदू बेटियां निशाना है’ शीर्षक के साथ प्रस्तुत किया। ये कार्यक्रम श्रद्धा हत्याकांड को लेकर तैयार किए गए थे, जिसमे एक युवक पर हत्या का आरोप था, जिसका नाम आफताब है। ‘आज तक’ ने 30 मार्च, 2023 को नालंदा में मुस्लिम समाज को निशाने पर रखा। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा ‘सीएनएन’ के साथ बातचीत के में यह कहना कि भारत यदि धार्मिक समुदायों के हितों को संरक्षण देने से चूकता है तो उसके उल्टे नतीजे देखने को मिल सकते हैं, को लेकर भी भारतीय चैनल उत्तेजित हो गए थे। 

सात आदेशों में एनबीडीएसए ने जो कहा है, वह मीडिया कंपनियों के चैनलों में आम बात हैं। दरअसल आदेश उन्हीं कार्यक्रमों को लेकर आते हैं, जिनके विरुद्ध शिकायतें दर्ज की जाती हैं। लेकिन जहां नफरती भाषा संस्कृति के रुप स्वीकार कर ली गई है, उस स्थिति में शिकायत बेमानी हो जाती है। शिकायत तो अपवाद जैसी स्थिति में सतर्कता बरतने के लिए ही की जाती है। 

राजनीति और मीडिया का गठबंधन 

हिंदी और भोजपुरी के कवि रहे गोरख पांडे ने अपनी एक कविता ‘दंगा’ में यह लिखा– “इस बार दंगा बहुत बड़ा था/खूब हुई थी/ख़ून की बारिश/अगले साल अच्छी होगी/फसल/मतदान की”।

दरअसल, गोरख पांडे कहते हैं कि सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं तो इसका मतलब है कि जितनी खून की बारिश होगी उतनी ही वोटो की भी बारिश होगी। अपनी कविता में गोरख पांडे राजनीति और सांप्रदायिक दंगों के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। लेकिन सांप्रदायिक दंगे से पहले सांप्रदायिक नफरत और तनाव की एक स्थिति तैयार की जाती है और वे लगातार बनी रहती हैं तो सांप्रदायिक दंगे की जमीन पर अगुवाई करने वाली राजनीतिक- सामाजिक शक्तियां कामयाब हो जाती हैं। 

सांप्रदायिक तनाव और नफरत का मकसद राजनीतिक सत्ता हासिल करना है। क्या मीडिया कंपनियां भी इसी मकसद में राजनीतिक ताकतों की सहायक होती हैं दो बातों को यहां ध्यान में रखा जा सकता है। पहला यह जो प्रमाणित भी है कि सांप्रदायिक दंगों में राजनीतिक संगठनों व दलों की भूमिका होती है। दूसरा जिसे गांधी, भगत सिंह, डॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. आंबेडकर ने बहुत साफ-साफ शब्दों में यह बताया है कि सांप्रदायिक दंगों में मीडिया की भूमिका होती है। इस समय यह देखा जाता है कि मीडिया और राजनीतिक संघ एक दूसरे के साथ गठबंधन में शामिल है। राजनीतिक दलों/संगठनों को सत्ता मिलती है और मीडिया को उसमें हिस्सेदारी मिलती है। यह हिस्सेदारी उनकी कमाई में भी जाहिर होती है। कहने के लिए सितंबर 2023 की स्थिति के अनुसार, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) द्वारा 915 निजी सैटेलाइट टीवी चैनलों की अनुमति प्रदान की गई है। इनमें 361 भुगतान वाले चैनल (भुगतान वाले 257 एसडी चैनल और भुगतान वाले 104 एचडी चैनल) और 543 ‘फ्री टू एयर’ (एफटीए) चैनल शामिल हैं तथा लगभग 332 प्रसारक (भुगतान वाले 42 प्रसारक और 290 एफटीए प्रसारकों सहित) हैं। लेकिन सच्चाई है कि मात्र 20-21 कंपनियों का टीवी चैनल के बाजार में वर्चस्व बना हुआ है। चैनलों  की कमाई का अंदाजा इससे लग सकता है कि वर्ष 2022 के दौरान, टीवी राजस्व 70,900 करोड़ रुपए का था, जिसमें से 31,800 करोड़ रुपए विज्ञापन का राजस्व था।

टीवी कंपनियां अपनी कमाई के लिए ‘स्लॉट’ बेचती हैं और प्रिंट कंपनियां ‘स्पेस’। राजनीतिक पार्टियां और उसके सहायक इन जगहों को खरीदते हैं और टीवी के जरिए अपने विचारों और संदेशों को फैलाते हैं। अभी पिछले ही दशक की बात है जब भारतीय मीडिया में एक शब्द बहुत प्रचलित हुआ था– ‘पेड न्यूज’। इसका मतलब यह लगाया जाता था कि राजनीतिक पार्टियां मीडिया में जगहें (स्पेस व स्लॉट) खरीद लेती हैं और मीडिया अपनी भाषा, डिजाईन और प्रस्तुति से उस जगह को इन राजनीतिक पार्टियों, व नेताओं के लिए इस्तेमाल करती रही है। वह लंबे समय तक चला और लोकतंत्र का डंका भी बजता रहा। अब मीडिया में जगह ‘सत्ता की स्थापना’ के लिए सुरक्षित कर लिया है। मीडिया का अपना कुछ नहीं दिखता है – जो दिखता है, वह खरीददारों की ही जगह दिखती है। अगर  मीडिया लोकसंभा चुनाव के दौरान केवल ‘नफरती संस्कृति’ का सौदा करना छोड़ दे तो लोकतंत्र के लिए बड़ी बात होगी। 

(संपादन : नवल/अनिल)      

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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