महाराष्ट्र में मराठा समुदाय पिछले कुछ सालों से आरक्षण की मांग कर रहा है। इसके लिए उन्होंने ‘एक मराठा, लाख मराठा’ नाम से विरोध प्रदर्शन शुरू किया। उनके प्रदर्शनों में संसाधनों का प्रयोग इतना अधिक था कि वे कहीं से भी संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के हिसाब से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े व वंचित नहीं लग रहे थे। केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू कर उनके लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस आरक्षण से महाराष्ट्र का मराठा समाज पूरा लाभ उठा सकता है। इससे मराठा समाज के आरक्षण की मांग पूरी होकर इस आरक्षण से गरीब मराठा लाभान्वित हो सकते हैं। लेकिन मराठा समुदाय के नेता मनोज जरांगे ने मांग रखी है कि मराठा समुदाय को केवल ओबीसी कोटे से तत्काल आरक्षण दिया जाना चाहिए। मनोज जरांगे ने कुणबी समाज, जो कि ओबीसी वर्ग का हिस्सा है, उन्हें मराठों के साथ जोड़कर यह कहना शुरू कर दिया कि सभी मराठा कुणबी हैं। इसके लिए वे तर्क दे रहे हैं कि मराठों और कुणबियों के बीच शादी-विवाह का सबंध है। यह कहकर मराठों को ओबीसी आरक्षण देने का मुद्दा उठाया गया है।
मनोज जरांगे ने इसके लिए भूख हड़ताल के आह्वान के साथ ही प्रदर्शन-रैलियां निकालीं। दबाव बनाने की उनकी इस नीति का महाराष्ट्र सरकार पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और उसने विधानसभा का विशेष सत्र आयोजित कर मराठों के लिए अलग से 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव सदन में पेश किया और उसे पारित भी करवा लिया गया। लेकिन जारांगे को यह भी स्वीकार नहीं हुआ, जबकि वह जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिक सीमा होने पर उसे खारिज किया जा सकता है। इसलिए वह चाहते हैं कि ओबीसी आरक्षण कोटे से ही मराठों को आरक्षण मिले।
दरअसल, वर्ष 1955 से 2008 तक सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक सर्वेक्षण के लिए जितने भी आयोग बने, सभी ने कहा है कि मराठा समुन्नत व समृद्ध समाज का हिस्सा हैं। राज्य और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने मराठा समुदाय को पिछड़ा घोषित करने से इनकार कर दिया था। गायकवाड़ कमेटी की सिफ़ारिशों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मराठा समुदाय के आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि उन्हें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
मराठा आंदोलन और मनोज जारांगे की भूख हड़ताल के दबाव में एकनाथ शिंदे सरकार ने मराठों का पिछड़ापन दिखाने के लिए जस्टिस संदीप शिंदे आयोग का गठन किया। इस आयोग द्वारा अल्प समय में घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया गया।
शिंदे सरकार की इस पहल के बाद मराठों को कुणबी समुदाय की पात्रता लागू कर उन्हें ओबीसी प्रमाणपत्र देकर आरक्षण पाने का रास्ता साफ कर दिया है।
इससे एक बात तो साफ है कि सरकार ने यह फैसला दबाव में आने के बाद लिया। महाराष्ट्र में कई ऐसे सामाजिक समूह हैं, जिनकी कोई आवाज नहीं है और न ही रोजी-रोजगार। बड़ा सवाल यह है कि ऐसे कमजोर व वंचित समुदायों के हितों को लेकर बात करने के लिए कोई भी तैयार क्यों नहीं दिखता?
एक सवाल यह है कि क्या ओबीसी और मराठा आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और रोजगार के मामले में बराबर हैं? इस प्रश्न का उत्तर सरकारी आंकड़ों और सामाजिक स्थिति देखकर नकारात्मक मिलता है। महाराष्ट्र सरकार के अधीन ए, बी, सी और डी श्रेणियों की सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व ओबीसी की तुलना में अधिक संतोषजनक है। मसलन, सीधी नियुक्ति प्रक्रिया की 48 प्रतिशत नौकरियों में से, मराठा समुदाय कुल 33.23 प्रतिशत प्रतिनिधित्व रखता है। गायकवाड़ आयोग की रिपोर्ट बताती है कि सामान्य वर्ग की श्रेणी में मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व भारतीय प्रशासनिक सेवा में 15.52 प्रतिशत, भारतीय पुलिस सेवा में 27.85 प्रतिशत तथा भारतीय विदेश सेवा में 17.97 प्रतिशत है।
ऐसे ही राज्य सरकार के विभागों में सीधी नियुक्ति की 50 प्रतिशत से अधिक सीटों पर मराठा समुदाय के लोगों का कब्जा है। जिंदल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुमित म्हस्कर द्वारा 2009 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, नौकरियों में तेजी से गिरावट के दौर में भी मराठों का दबदबा कायम रहा। उनके अनुसार, अनुवांशिक अवलोकन और ट्रेड यूनियन नेताओं के साथ चर्चा के बाद, यह समझा जाता है कि बड़े पैमाने के उद्योगों में अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियों में मराठों का दबदबा है। उनका कहना है कि इन निष्कर्षों के आधार पर मराठा समुदाय को पिछड़ा नहीं कहा जा सकता। चाहे तो महाराष्ट्र सरकार जातिवार जनगणना करवाकर मराठों की सामाजिक स्थिति पता कर सकती है। लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं दिख रही है।
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में सबसे पहले 1902 में आरक्षण लागू करनेवाले शाहूजी महाराज के बारे में एक प्रसंग है कि आरक्षण देते समय उन्होंने एक प्रयोग किया था। उन्होंने एक मजबूत और एक कमजोर घोड़े को अस्तबल में एकसाथ खाना खाने के लिए छोड़ दिया। वे देखना चाहते थे कि क्या एक ताकतवर घोड़ा कमजोर घोड़े को खाना खाने देगा? हुआ यह कि ताकतवर घोड़े देखते ही देखते सारा चारा चट कर दिया और कमजोर घोड़ा देखता रह गया। दरअसल, ओबीसी को इस स्थिति का ज्यादा डर है। इसलिए वह मराठों के ओबीसीकरण का विरोध करते दिख रहे हैं।
दूसरी ओर जातीय अस्मिता का मुद्दा भी प्रमुख है। मराठा खुद को क्षत्रिय मानते हैं, लेकिन कुणबी शूद्र वर्ग से संबंधित हैं। शायद यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री नारायण राणे मराठों के कुणबीकरण का विरोध कर रहे हैं।
शिक्षा के अभाव में ओबीसी समाज आज भी अपने अधिकारों को समझने से वंचित है। ओबीसी राजनीतिक नेता समाज के विकास को लेकर कड़ा रुख अपनाने को तैयार नहीं दिखते। मराठों के मामले में ऐसा नहीं है। उनके पास संस्थानों, कारखानों और जमीनों पर अधिकार के साथ-साथ जागरूकता भी है। उनके शिक्षा का स्तर ओबीसी से कहीं अधिक है। राजनीति में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से लेकर मुख्यमंत्री पदों तक मराठों का बोलबाला है। इसलिए ओबीसी की शिक्षा और सरकारी रोजगार के अवसरों के साथ-साथ स्थानीय निकायों के राजनीतिक आरक्षण के अधिकारों पर मराठों का हमला कहना गलत नहीं है।
महाराष्ट्र में मराठों को आरक्षण दिलाने के लिए सभी राजनीतिक दल और संगठन समर्थन कर रहे हैं। लेकिन सभी का मानना है कि यह आरक्षण किसी की थाली से छीना नहीं जाना चाहिए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बढ़ती पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार कृषि के विभाजन के कारण मराठा समाज में एक गरीब वर्ग अस्तित्व में आया है। फिर भी उनके पास दूसरों की तुलना में अधिक आय और जमीन है। मराठा समुदाय की गरीबी मिटाने के लिए कई सरकारी योजनाएं हैं। अब केंद्र और राज्य सरकारों ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू कर दिया है। गरीब मराठा समुदाय इस 10 फीसदी ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ उठा सकता है। लेकिन मनोज जारांगे इस आरक्षण को सिरे से खारिज करते हैं। शायद, मनोज जारांगे को लगता होगा कि मराठा समुदाय के लोग ईडब्ल्यूएस आरक्षण में ब्राह्मणों जैसी उन्नत जातियों के सामने टिक नहीं पाएंगे, तो उसी अर्थ के अनुरूप, उन्हें ओबीसी श्रेणी से मराठों के लिए आरक्षण की मांग करने की नैतिकता कहां से मिलती है?
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)