हाल ही में संपन्न 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने अपराजेय माने जाने वाले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके नेता नरेंद्र मोदी को जरूर ही झटका दिया है। भाजपा 240 सीटों तक ही पहुंच सकी और 272 के बहुमत आंकड़े से दूर रह गई। लेकिन, इसके बावजूद भाजपा सत्ता से बेदखल नहीं हुई है। सत्ता की बागडोर अब भी नरेंद्र मोदी के पास ही है। इस बीच चुनाव परिणाम को अलग-अलग नजरिए से देखा जा रहा है।
जरूर ही चुनाव परिणाम राजनीतिक बदलाव की कहानी की शुरुआत होने के बारे में बताते हैं और भाजपा के निर्णायक शिकस्त की राह दिखाते हैं।
दरअसल, यह लोकसभा चुनाव जिस तरह से खड़ा हुआ और चुनाव परिणाम जिस रूप में सामने आया, उसको देखने-समझने के लिए पिछले दौर में भी झांकना जरूरी है। चुनाव और चुनाव के पूर्व के 10 वर्ष के नरेंद्र मोदी राज से अलग-थलग इस चुनाव के परिणाम को सतही तौर पर नहीं देखा-समझा जा सकता है। चुनाव परिणाम से सामने आए राजनीतिक बदलाव के एजेंडा व दिशा को जानने-समझने के लिए चुनाव और उसके पीछे के 10 वर्षों के नरेंद्र मोदी राज पर नजर डालते हैं।
आजादी के बाद संविधान के साथ संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में एक राष्ट्र के बतौर भारत की यात्रा में वर्ष 2014 एक खास मोड़ के बतौर दर्ज हो चुका है। भाजपा-आरएसएस ने निर्णायक तौर पर केंद्र की सत्ता पर कब्जा किया। आरएसएस के सांचे में ढले हिंदू पहचान के प्रतीक बनकर उभरे कॉरपोरेट जगत के प्रिय नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता संभाली। दलित-बहुजनों पर चौतरफा हमला तेज हुआ। लंबे दौर में हासिल उपलब्धियों को छीने जाने लगा। जीवन के हरेक क्षेत्र में द्विज विशेषाधिकार की पुनर्स्थापना शुरू हुई। अंतिम तौर पर हिंदू राष्ट्र के निर्माण का एजेंडा आगे बढ़ाया जाने लगा और इसके लिए सामाजिक न्याय के साथ ही संविधान को निशाने पर लिया गया। दलितों-पिछड़ों की अगुआई वाली पार्टियों का एक हिस्सा भाजपा के साथ ही था तो दूसरी विपक्षी पार्टियां भी हमले के खिलाफ कारगर भूमिका में खड़ा नहीं हो रही थीं। इस परिदृश्य में खासतौर पर जो उल्लेखनीय है, वह यह है कि सड़कों पर दलित-बहुजनों का संघर्ष सामने आने लगा। रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के खिलाफ उभरे प्रतिरोध से दलित-बहुजन आंदोलन के नए दौर का आगाज ही हुआ। नीला रंग प्रतिरोध के रंग के बतौर सामने आया और संघर्ष के मैदान में नीला झंडा लहराने लगा। डॉ. आंबेडकर की तस्वीरें संघर्ष के मैदान में दिखाई पड़ने लगी। नए सिरे से दलित-बहुजनों का जागरण, एकजुटता व दावेदारी आगे बढ़ा और बहुजन चेतना ने नया जीवन हासिल करना प्रारंभ किया। इसी तरह “जय भीम-लाल सलाम” का नारा भी सामने आया। दलित-बहुजन सक्रियता-संघर्ष ही नहीं, बल्कि वाम-लोकतांत्रिक आंदोलन में भी डॉ. आंबेडकर बड़े प्रकाश स्तंभ के बतौर खड़ा होने लगे। जिन बहुजन नायकों को इतिहास की तलहटी में दबा दिया गया था, वे भी प्रेरणा स्रोत के बतौर सतह पर आकर खड़ा होने लगे। हमले के प्रतिरोध के साथ ही सामाजिक न्याय का लंबे समय से अनुत्तरित एजेंडा भी उभर कर सामने आने लगा। एससी, एसटी और ओबीसी पहचान और हिंदू पहचान का द्वंद्व नए सिरे से खड़ा होने की ओर बढ़ा। लेकिन वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 2014 के रिकॉर्ड को भी तोड़ते हुए नरेंद्र मोदी को ऐतिहासिक विजय मिली। दलित-बहुजनों का जागरण व दावेदारी और सामाजिक न्याय का मुद्दा चुनाव के मंच पर निर्णायक भूमिका में खड़ा नहीं हो पाया।
वहीं वर्ष 2024 का चुनाव अलग कहानी कहते हुए सामने आया। यह चुनाव कई लिहाज से खास और अद्वितीय रहा। एक तो यह कि असाधारण परिस्थितियों में हुआ यह असाधारण चुनाव था, जिसमें संविधान व लोकतंत्र का भविष्य ही दांव पर लगा हुआ था। इस चुनाव की खास बात यह रही कि इस बार कोई लहर नहीं थी। नरेंद्र मोदी एजेंडा तय करने में निर्णायक नहीं दिखे। वे कोई राष्ट्र स्तरीय नॅरेटिव गढ़ने में नाकामयाब हुए। चुनाव में पिछले 10 वर्षों में उभरे आंदोलन और उसके मुद्दों की गूंज साफ-साफ सुनाई पड़ रही थी। इस चुनाव का एजेंडा दलित-बहुजनों, मेहनतकशों व अन्य तबकों के संघर्षों का एजेंडा चुनाव का एजेंडा बना। एससी, एसटी और ओबीसी ने सक्रियता व संघर्षों में अपने हाथों में संविधान उठा रखा था, उसी संविधान को बचाने का सवाल ही भाजपा गठबंधन के खिलाफ चुनाव का प्रधान एजेंडा बना। इन पहचानों से जुड़े सामाजिक न्याय के सवाल चुनावी परिदृश्य में मजबूती से खड़ा हुआ।
हिंदू पहचान और उसके मातहत निर्मित जिस बड़े सामाजिक समीकरण के जरिए भाजपा 2014 और 2019 में सफल हुई थी, वह 2024 में टूटता-बिखरता दिखा। जबकि, दलितों-पिछड़ों की पार्टियों का एक हिस्सा भाजपा के साथ ही रहा। चुनाव के मंच पर एससी, एसटी और ओबीसी पहचान की दावेदारी भूमिका में खड़ी हुई, जिसके कारण भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनाव में जबर्दस्त चुनौती मिली।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव की तरह भारतीय समाज और राष्ट्र के लोकतांत्रिक रूपांतरण का केंद्रीय एजेंडा – जाति का प्रश्न – चुनावी राजनीतिक विमर्श का हिस्सा पहले के चुनावों में इस कदर शायद ही बना हो। संभवत: यह पहला लोकसभा चुनाव होगा, जिसमें सामाजिक न्याय का एजेंडा इतनी व्यापकता व स्पष्टता के साथ उठा। कांग्रेस के साथ ही ‘इंडिया’ गठबंधन के अधिकांश घटक दलों ने घोषणापत्र में सामाजिक न्याय के एजेंडा को महत्वपूर्ण जगह दी। कांग्रेस की अगुआई वाले इस गठबंधन में सामाजिक न्याय की धारा की पार्टियों के साथ वामपंथी व अन्य कई रंग की पार्टियां शामिल हैं। जाति के प्रश्न से कतराकर निकल जाने वाली वामपंथी पार्टियों ने भी एससी, एसटी व ओबीसी पहचान और उससे जुड़े सवालों को पहली बार इतनी गंभीरता से संबोधित किया।
गौर किया जाना चाहिए कि इस बार सामाजिक न्याय के एजेंडा में जातिगत जनगणना का सवाल सबसे महत्वपूर्ण होकर सामने आया। कांग्रेस सहित विपक्षी गठबंधन के अधिकांश पार्टियों के घोषणा पत्र में यह कॉमन रहा। जातिगत जनगणना एक ऐसा एजेंडा है, जिसकी भारतीय शासकों ने ऐतिहासिक उपेक्षा की है, और जो देश की आधी से ज्यादा आबादी ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के साथ ही जाति के प्रश्न को हल करने के प्रति शासकों की ऐतिहासिक उपेक्षा की गवाही देता है। अंग्रेजी राज में जातिगत जनगणना होती रही थी, लेकिन आजाद भारत के शासकों ने इसकी जरूरत को खारिज कर दिया। जबकि, पहले पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग) ने अपनी अनुशंसाओं में जातिगत जनगणना कराए जाने की बात कही। वहीं दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) के अध्यक्ष बी.पी. मंडल ने आयोग की रपट राष्ट्रपति को समर्पित करते समय अपने पत्र में जातिगत जनगणना कराए जाने को आवश्यक बताया था।
असल में जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय की राजनीति का बुनियादी एजेंडा है। सामाजिक न्याय की दिशा में ठोस और व्यापक कदम उठाने के लिए यह प्राथमिक जरूरत भी है, क्योंकि इसीसे यह पता चलना है कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में वर्ण-जाति व्यवस्था किस हद तक आज भी लागू है और इसीसे उसका संपूर्ण चित्र उभर कर सामने आना है तथा सामाजिक न्याय के लिए संपूर्णता में रोडमैप बनाने का ठोस तथ्य व आंकड़ा हासिल होना है। लेकिन आज तक हुआ यह है कि जिससे जाति के प्रश्न को हल करने यानी जातिगत सामाजिक व्यवस्था रूपी बीमारी के निर्णायक इलाज की दिशा में कदम बढ़ाया जाता, उसे ही बीमारी यानी जातिवाद को बढ़ाने का मसला बताया जाता रहा है। यह भी महत्वपूर्ण है कि जातिगत जनगणना से देश की बड़ी आबादी ओबीसी के द्विज विशेषाधिकार के खिलाफ लड़ाई को आवेग हासिल होगा, इस लड़ाई में दलितों के साथ ओबीसी की ताकत मिलेगी। इसलिए ही भारतीय शासक जातिगत जनगणना कराने से डरते रहे हैं।
आज के दौर में ब्राह्मणवाद की पैरोकारी सबसे मुख्य पार्टी भाजपा और उसके अगुआ नरेंद्र मोदी का डरना भी कतई अस्वाभाविक व अप्रत्याशित नहीं था। वे भी इसलिए ही जातिगत जनगणना कराने के लिए तैयार नहीं हुए।
दूसरी ओर चुनाव के पहले से ही राहुल गांधी ने खासतौर पर जातिगत जनगणना और हिस्सेदारी के सवाल पर फोकस किया था। विपक्षी गठबंधन द्वारा संविधान बचाने और सामाजिक न्याय के एजेंडा को प्रमुखता से उठाये जाने के साथ ही चुनाव के मंच पर द्विज विशेषाधिकार बनाम बहुजनों के सम्मान, हिस्सेदारी और बराबरी के संघर्ष ने प्रमुखता ग्रहण कर ली। चुनाव के मंच पर भारतीय समाज का मूल संघर्ष खड़ा होने की ओर बढ़ा।
यह ठोस सच्चाई है कि आज भी भारतीय समाज का मूल संघर्ष ब्राह्मणवादी शक्तियों और बहुजनों के बीच है। जबकि भाजपा-आरएसएस हिंदू बनाम मुसलमान के संघर्ष को भारत के मूल संघर्ष के बतौर प्रस्तुत करता है और हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे को सामने लाता है। हिंदू राष्ट्र के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए हिंदू पहचान को उभारने का लगातार अभियान चलाता है। ज्ञात हो कि हिंदू पहचान का इतिहास आजादी की लड़ाई के दौर से शुरू होता है, उसी दौर में हिंदू पहचान गढ़ने की शुरुआत ब्राह्मणवादी शक्तियों ने बदली परिस्थिति और आ खड़ी हुई चुनौती के बीच वर्ण-जाति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया। मुसलमानों के विरोध में हिंदू पहचान खड़ा हुआ है और इसका आधार ही झूठ रहा है।
खैर, इस बार चुनाव के प्रथम चरण के बाद यह स्पष्ट संकेत सामने आया कि हिंदू पहचान और उसके मातहत निर्मित सामाजिक समीकरण टूट-बिखर रहा है। नरेंद्र मोदी की अगुआई में चल रहा हिंदुत्व का रथ फंस रहा है। संविधान, आरक्षण और सामाजिक न्याय के सवालों – खासतौर से जातिगत जनगणना व हिस्सेदारी के सवालों – से घिरे नरेंद्र मोदी और उनकी टीम झूठ और सांप्रदायिक जहर उगलने के मामले में मिसाल कायम करने की ओर बढ़े। उठ खड़े हुए सवालों को हिंदू-मुस्लिम विमर्श के सीमित दायरे में खींच लाने और एससी, एसटी व ओबीसी पहचान को तोड़कर हिंदू पहचान उभारने की अधिकतम कोशिश की। इससे पूर्व नरेंद्र मोदी कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप होना बता रहे थे। अब वे सर्वे/एक्स-रे कराने का हवाला देकर अवाम को डराने की ओर बढ़े कि उनकी संपत्ति छीन ली जाएगी और मुसलमानों को दे दी जाएगी।
उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी सर्वे/एक्स-रे शब्द का इस्तेमाल जातिगत जनगणना के संदर्भ में करते रहे हैं। इसके बरक्स मोदी ने एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण को भी मुसलमानों से खतरे के झूठ को परोसना शुरू किया।
दरहकीकत यह कि मोदी के डर की अभिव्यक्ति थी। नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने आरक्षण/हिस्सेदारी के सवाल को हिंदू एससी, एसटी और ओबीसी बनाम मुसलमानों का बना देने और द्विज बनाम बहुजन के मूल संघर्ष को दबाने के लिए एससी, एसटी व ओबीसी पहचान को हिंदू पहचान में समाहित करने की अधिकतम कोशिश की।
यह सर्वविदित तथ्य है कि पिछले दौर में भाजपा ने मंडल उभार के जवाब में मंदिर मुहिम शुरू किया था। बाद के दिनों में मंडल-बहुजन धाराओं ने अपना आवेग खो दिया। ये धाराएं सामाजिक न्याय के आगे के एजेंडे को मजबूती से प्रस्तुत करने में नाकामयाब रहीं। मंडल-बहुजन धाराओं के पास चेहरा और संकीर्ण होता सामाजिक समीकरण ही बचा था। इस परिदृश्य में भाजपा ने बिहार-यूपी जैसे राज्यों में सफलता की नई ऊंचाई हासिल की।
वहीं इस बार सामाजिक न्याय केवल कुछ चेहरों के साथ और कुछ जातियों के अंकगणितीय जोड़ पर खड़ा नहीं हुआ, बल्कि वह व्यापक मुद्दों के साथ खड़ा हुआ। यही कारण रहा कि हिंदी पट्टी में भाजपा को उसके सबसे मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में गहरा धक्का लगा।
कुल मिलाकर चुनाव परिणाम अंतत: बता रहा है कि भाजपा इस बार सामाजिक न्याय की चुनौती से निपटने में कामयाब नहीं हुई। चुनाव परिणाम ने भाजपा को निर्णायक शिकस्त देने का केंद्रीय एजेंडा स्पष्ट कर दिया है। इस चुनाव से भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय का एजेंडा हाशिए से केंद्र की ओर आ चुका है। अब यहां से भारतीय राजनीति एक मोड़ ले रही है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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