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अब अबोल बना दिए गए लोगों को बोलने दीजिए

जमीन के लिए संघर्ष करने वाली दलित-बहुजन महिलाएं बोल सकती थीं, बोल सकती हैं। उनके सामने मंच पर बोलनेवालों से कहीं ज्यादा बेहतर बोल सकती हैं, ज्यादा सशक्त तरीके से बोल सकती हैं। ऐसा बोल सकती हैं कि मंच पर उपस्थित लोग कल्पना भी नहीं कर पाएं। जैसा कि फूलन देवी की आत्मकथा के मामले में हुआ। पढ़ें, डॉ. सिद्धार्थ का यह विचारोत्तेजक आलेख

वर्गीय, जातीय, लैंगिक और अन्य सभी तरह के वर्चस्व को स्थापित करने का एक आसान तरीका यह होता है कि जिन्हें अधीनस्थ करना हो, उन्हें ‘अबोल’ बना दिया जाए। इस बात का गहरा एहसास पूर्वांचल में भूमिहीन परिवारों के लिए कम-से-कम एक एकड़ जमीन के लिए संघर्ष और आंदोलन के दौरान हुआ। उस दिन गोरखपुर कमिश्नरी परिसर में कम-से-कम 5 हजार महिलाएं जुटी थीं। इस आंदोलन की रीढ़ महिलाएं ही थीं। उनमें भी विशेषकर दलित और अति पिछड़ी जाति की महिलाएं। मंच सजा हुआ था। नेता और बुद्धिजीवी – एक एकड़ जमीन क्यों मिलनी चाहिए – इस पक्ष में तथ्य और तर्क दे रहे थे। सुबह 11 बजे से लेकर रात 8 बजे तक नेताओं-बुद्धिजीवियों का भाषण चलता रहा।

इस दौरान मैंने करीब 50-60 महिलाओं से बात की। उनसे पूछा कि आप क्यों इस आंदोलन में आईं हैं और आपकाे क्यों एक एकड़ जमीन चाहिए? उनमें से 4-5 महिलाओं ने इन सवालों का जिस तरह का जवाब दिया, उसे सुनकर मुझे लगा कि मंच पर जो लोग भी जमीन के पक्ष में बोल रहे हैं, उनके तथ्यों-तर्कों और संवेदना में वह दम नहीं है, जो इन महिलाओं की बातों में है। हालांकि मंच से बोलने वालों में मैं स्वयं भी शामिल था। मुझे लगा कि इन महिलाओं की बातें मंच से सबके सामने आनी चाहिए। इससे न केवल सभा में आए नेता और बुद्धिजीवियों की जानकारी, समझ और संवेदना बढ़ेगी, बल्कि यहां उपस्थित हजारों महिलाओं की भी समझ गहरी होगी।

जब मैंने उनमें कुछ महिलाओं से बोलने को कहा तो उन्होंने भोजपुरी में जवाब दिया– “ए बाबू, हम वइसे नाही न बोल पाइबऽ, जैसे ऊहां (मंच पर) सब बोलतऽ बाऽ।”

सवाल यह है कि आखिर कैसे, किस तरह और किसने उसके दिलो-दिमाग में यह स्थापित कर दिया कि जिस खास तरीके से मंच पर बोला जा रहा है, वैसे बोलना ही बोलना है। उसके अलग बोला नहीं जा सकता है। मसलन, मंच पर मौजूद सभी लोग खड़ी बोली हिंदी में बोल रहे थे। कुछ शिष्टाचार संबंधी औपचारिक संबोधन कर रहे थे, कुछ अखबारों-पत्रिकाओं का नाम ले रहे थे, कुछ लिखित आंकड़े प्रस्तुत कर रहे थे। कुछ विचारकों- चिंतकों का जिक्र कर रहे थे। कुछ इतिहास में हुए संघर्षों की चर्चा कर रहे थे। कुछ अपने संघर्षों-किताबों और लेखों का जिक्र कर रहे थे। कुछ मार्क्स, आंबेडकर और कांशीराम को उद्धृत कर रहे थे। कुछ शेरो-शायरी भी सुना रहे थे। लेकिन मंच के सामने मौजूद कोई महिला यह सब कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रही थी। हालांकि इन महिलाओं के पास मंच पर उपस्थित लोगों से ज्यादा सशक्त तर्क, तथ्य और विशेषकर यह अनुभव था कि उन्हें जमीन क्यों मिलनी चाहिए।

10 अक्टूबर, 2023 को गोरखपुर कमिश्नरी परिसर में आयोजित सभा में मौजूद महिलाएं (तस्वीर : सिद्धार्थ)

मंच पर जाकर बोलने में जो पहला संकट उनके सामने था, वह यह कि कैसे वह इतने बड़े-बडे़ लोगों के बीच जाएं और खड़ी होकर बोलें। कुछ महिलाओं ने कहा भी कि ‘ऊंहा बड़-बड़-बड़बड़ लोग आइलऽ बाटें।’ वे खुद को इन बड़बड़ (बड़े-बड़े) लोगों से बहुत छोटा समझ रही थीं। जो बडे़ लोग आए थे, वे भी खुद को इन महिलाओं से बड़ा ही समझ रहे थे। वे इन महिलाओं को बताने-समझाने की मुद्रा में ही थे। लेकिन ये महिलाएं कुछ ऐसा बता सकती हैं, जो उनको नहीं पता है, यह कहीं से भी उनके बात-व्यवहार से नहीं झलक रहा था। जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूं कि इन महिलाओं के पास जमीन के पक्ष में ज्यादा मजबूत तर्क, तथ्य और अनुभव से पैदा हुई समझ थी। सवाल यही है कि क्यों और कैसे इन महिलाओं को यह लगा कि उनके तर्क, तथ्य और अनुभव कमतर हैं और जो लोग मंच से बोल रहे हैं, वे ज्यादा समझदार, ज्ञानी और जानकार हैं। मंच पर उपस्थित लोग ‘बड़-बड़’ हैं और वे ‘छोट’ हैं।

दूसरी बात जो उनके दिमाग में थी, वह यह कि मंच पर सभी लोग खड़ी बोली में बोल रहे थे। वह कतई खड़ी बोली में नहीं बोल सकती थीं, क्योंकि उनमें से अधिकांश के पास औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर थी। वे रोज की जिंदगी में दिन-रात भोजपुरी (अपनी गंवई बोली) में बात करती हैं। सवाल यह है कि आखिर उन्हें किसने और कब बताया या उनके भीतर गहरे बैठा दिया कि अपनी गंवई बोली में बोलना बोलना नहीं होता है, खड़ी बोली में बोलना ही बोलना होता है? जैसे कभी संस्कृत में बोलना, अरबी-फारसी में बोलना और अंग्रेजी में बोलना ही बोलना होता था।

तीसरी बात, यानी मंच पर जाने की बात को वे ऐसे ले रही थीं, जैसे उन्हें एवरेस्ट चढ़ने के लिए कहा जा रहा हो। कुछ महिलाओं ने कहा कि ‘ए बाबू, हम ऊहां कैसे जाईंऽ’। मंच खास चीज होती है। वह बडे़ लोगों के लिए ही होती है। वे महिलाएं इस लायक नहीं हैं। कब और किस प्रक्रिया के जरिए यह बात उनके भीतर पैठ गई और बैठ गई। क्यों और कैसे मंच उनके लिए एवरेस्ट बन गया, जिस पर केवल कुछ लोग ही चढ़ सकते हैं?

चौथी बात, मंच पर जो औपचारिक शिष्टाचार हो रहा था, वह भी उनके हिचक का बड़ा कारण था। पहले तो जिन लोगों को मंच पर बुलाया जा रहा था, वे खास और विशिष्ट हैं, इसका परिचय दिया जा रहा था। उनके किसी के पद, किसी के पेशे, किसी के संगठन और किसी के बड़े-बड़े कामों के बारे में बताया जा रहा था। वे महिलाएं अपने को उसमें कहीं नहीं पा रही थीं। उनको लग रहा था कि उनमें तो ऐसी कोई खासियत ही नहीं हैं। मंच पर एक-दो महिलाएं जो बोलीं, वह भी इन तमाम खासियतों से लैस थीं। मंच के सामने की महिलाएं अपने भीतर कोई भी खासियत नहीं देख पा रही थीं।

पांचवी बात, एक एकड़ भूमि के लिए आए लोगों में 90 प्रतिशत महिलाएं थीं। लेकिन मंच पर बैठने और बोलने वालो में 99 प्रतिशत पुरुष थे। मंच पर पुरुषों की इस भीड़ में जाने के मामले में महिलाएं असहज और अलग-थलग पा रही थीं। जो एक महिला मंच पर थीं, वह भी अपने बोलने-चालने में उनके जैसी बिलकुल नहीं लग रही थीं। उन्हीं के जैसी अगर बहुत नहीं तो कम-से-कम एक-दो महिलाएं भी मंच पर दिखतीं, तो मंच पर जाने की कुछ हिम्मत भी शायद जुटा लेतीं।

छठी बात, संगठनकर्ता, आयोजक और संचालक भी यह मानकर चल रहे थे कि जो दलित-बहुजन महिलाएं पिछले करीब दो सालों से एक एकड़ जमीन के संघर्ष में सबसे बड़ी संख्या में हिस्सेदारी कर रही हैं, जमीन पाने के अपने सपने को पूरा करने के लिए वे क्या बोलेंगी। उनका काम तो बस संघर्ष में आना है। संख्या बढ़ाना है। वे अगुवाई कैसे कर सकती हैं, वे नेतृत्व कैसे दे सकती हैं। कोई ऐसा प्रयास नहीं दिख रहा था कि जिससे लगे कि जो महिलाएं इतना कष्ट उठाकर आ रही हैं, संघर्ष कर रही हैं, आंदोलन की रीढ़ बनी हुई हैं, वे एक एकड़ जमीन की जरूरत के पक्ष में तर्क भी दे सकती हैं, तथ्य भी रख सकती हैं, अपने अनुभव भी बता सकती हैं।

बात किसी एक जगह या किसी एक संघर्ष-आंदोलन की नहीं है। कमोबेश यही परिघटना हर जगह दिखती है। एक ढांचा, एक ऐसी व्यवस्था, एक तरीका और सबसे बढ़कर एक भाषा विकसित कर दी गई है, जो उनमें फिट नहीं बैठता है, उसे अबोल ही रहना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहूं तो उन्हें अबोल बना दिया जाता है। कभी-कभी इन अबोल बना दिए गए लोगों को मंच पर लाया भी जाता है, तो वे भी उसी भाषा में, उसी तरीके और उन्हीं औपचारिकताओं के साथ बोलने की कोशिश करते हैं या करती हैं, जो मंच के विशिष्ट जनों की होती है। जो उनकी अपनी नहीं होती। इस प्रक्रिया में वे सिर्फ मंच की भोंडी नकल करते/करती हैं। ऐसे में ठीक से बोल पाने में उनकी असफलता तय होती है, क्योंकि वे अपने दिलो-दिमाग की बात नहीं बोलतीं, अपने तौर-तरीके से नहीं बोलतीं, अपने ढंग से नहीं कहतीं। वे कुछ शब्दों में अगुआ लोगों की तारीफ करती हैं, उनकी महानता का गुणगान करती हैं। उनके साथ या पीछे चलने का कारण बताती हैं। ऐसा मैंने उपरवर्णित भूमि प्राप्ति के लिए किए गए आंदोलन और अन्य आंदोलनों में भी देखा है।

कई बार होता है कि जो लोग मंच से धुंआधार बोल रहे होते हैं, वही लोग अंग्रेजी-दा लोगों के बीच अबोल हो जाते हैं, क्योंकि वहां के मानदंडों पर वे और उनकी बोली-बानी कई बार इन महिलाओं जैसी हो जाती है। इस तरह समाज में वर्चस्व और अधीनता के स्तर पनपते हैं और समाज वर्चस्व और अधीनता के रिश्ते में जीता रहता है। कई बार वर्चस्व तोड़ने के लिए लड़नेवाले अपने तरह के वर्चस्व का अपना एक ढांचा और भाषा विकसित करते हैं। कोई जरूरी नहीं है कि वे यह काम जान-बूझकर ही कर रहे हों। यह काम वे वर्चस्वशाली अभिजनों के प्रभाव और दबाव में आकर भी करते हैं। कई अपने को विशिष्ट साबित करने के लिए भी ऐसा करते हैं। यह काम जाने-अनजाने दोनों तरीकों से होता है।

तय है कि जब तक अबोल बना दिए गए बहुसंख्यक आम लोग नहीं बोलेंगे तब तक बदलाव की कोई बड़ी प्रक्रिया नहीं घटित हो सकती है। वर्चस्व और अधीनता के रिश्तों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आ सकता है। कैसे बहुसंख्यक अबोल लोगों को बोलने की स्थिति में लाया जाए? बदलाव के बुनियादी शर्तों में यह पहली बड़ी शर्त है।

जब कोई ऐसी अबोल बना दी गई महिला बोलती है, तो क्या चीज सामने आती है, इसका अब तक का सबसे सशक्त उदाहरण फूलन देवी की आत्मकथा ‘दी ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज बैंडिट क्वीन’ (स्फेयर, लंदन, 2012) है। फूलन देवी पूरी तरह निरक्षर थीं। किसी तरह उन्होंने बाद के दिनों में हस्ताक्षर करना सीखा। लेकिन उनकी ऐसी आत्मकथा सामने आई, जो भारतीय जीवन के यथार्थ को ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ जैसी महान कृतियों से ज्यादा सशक्त अभिव्यक्ति देती है। भारतीय समाज के बहुस्तरीय यथार्थ को ज्यादा व्यापक रूप में सामने लाती है। हिंदी पट्टी के बुनियादी अन्तर्विरोधों का शायद ही कोई रूप हो जो फूलन देवी की आत्मकथा में सामने न आया हो।

प्रश्न यह है कि यह संभव कैसे हुआ? यह तब संभव हुआ जब विदेश (फ्रांस) से एक टीम आई और उन्हें यह एहसास दिलाया कि उनकी जीवन-यात्रा न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए उस टीम ने उनके भीतर आत्मविश्वास भरा और उनसे कहा कि आप अपनी कथा अपनी बुंदेलखंडी बोली-बानी में जैसे आप कहना चाहती हैं, वैसे कहिए। ऐसे कहा जाता है, वैसे कहा जाना चाहिए, इसकी कोई चिंता मत कीजिए। बस आप सबकुछ कहिए। जरूरत पड़ने पर हम कुछ सवाल पूछ लेंगे। वे सवाल विशिष्टता स्थापित करने के लिए नहीं, दबाव बनाने के लिए नहीं, किसी खास दिशा में ले जाने के लिए नहीं, बल्कि उनके जीवन के और उनके अनुभवों के अनछुए पक्षों को सामने लाने के लिए। टीम ने कहा कि आप आराम से कहिए। हमें कोई जल्दी नहीं है। हम सुनने में वर्षों लगा सकते हैं। आप जितना समय लेना चाहती हैं, ले लीजिए। आप एक बार में जितना कह पाइए, उतना ही कहिए। जिस तरह जैसे कहना चाहती हैं कहिए। क्या बनेगा, कैसे बनेगा? इसकी चिंता मत कीजिए। फ्रांसीसी टीम और उसके लेखकों ने धैर्यपूर्वक कई महीनों में यह उनकी आत्मकथा उनसे सुनी। उसे लिपिबद्ध किया। करीब 2000 पेज का दस्तावेज बना। उसे फिर करीब पांच सौ पन्नों में संपादित करके प्रस्तुत किया गया। शब्द-दर-शब्द फिर फूलन देवी को सुनाया गया। हर पन्ने पर उनके हस्ताक्षर लिये गए। फिर दो सालों में फूलन की आत्मकथा तैयार हुई।

दुनिया का कोई लेखक शायद ही ऐसी कृति खुद तैयार कर पाता, क्योंकि लिखनेवालों के पास लिखने का हुनर तो था और है, लेकिन वे जीवन और उस जीवन के संघर्ष कहां से लाते, जो फूलन के पास ही था। दूसरे शब्दों में, फूलन के पास जो कथ्य था, जो पूरा का पूरा उनका अपना था। लेकिन वे उसे साक्षर न होने या लिखने का हुनर न होने के चलते लिपिबद्ध नहीं कर सकती थीं। फूलन के कथ्य को दो लोगों ने, जिनके पास लिपिबद्ध करने का हुनर था, लिपिबद्ध कर दिया। अच्छी और जरूरी बात यह कि लिपिबद्ध करनेवालों ने यह आत्मकथा मैंने लिखी है, इसका कोई दावा नहीं किया। इस आत्मकथा में उनका कहीं नाम तक नहीं है।

यह भी पढ़ें : फूलन देवी की आत्मकथा : यातना की ऐसी दास्तान कि रूह कांप जाए

जमीन के लिए संघर्ष करने वाली दलित-बहुजन महिलाएं बोल सकती थीं, बोल सकती हैं। उनके सामने मंच पर बोलनेवालों से कहीं ज्यादा बेहतर बोल सकती हैं, ज्यादा सशक्त तरीके से बोल सकती हैं। ऐसा बोल सकती हैं कि मंच पर उपस्थित लोग कल्पना भी नहीं कर पाएं। जैसा कि फूलन देवी की आत्मकथा के मामले में हुआ। लेकिन इसके लिए जरूरी था और है कि आप में उन्हें सुनने की उत्सकुता हो। हो सकता है कि उनके पास आपसे बेहतर कहने के लिए है, आप को इस पर विश्वास न सही, कम-से-कम उम्मीद तो हो। आप अपने मानदंड उन पर न लादें। उन्हें उनकी बोली-बानी में और अपने तरीके से बोलने दें। जिस तरह बोलने में वह सहज महसूस करें, कोई दबाव न महसूस करें, बोलने दें। हां, आप उनकी एक मदद और कर सकते हैं कि उन्हें यह भरोसा दिला सकते हैं कि आप हमसे बेहतर बोल सकती हैं, ज्यादा जरूरी बात बोल सकती हैं। लेकिन इसके लिए आपको तो कम-से-कम उनके ऊपर भरोसा होना चाहिए।

जिस दिन अबोल बना दिए लोग बोलने लगेंगे, दुनिया बदल जाएगी। आज की तुलना में बहुत ज्यादा बेहतर हो जाएगी। अबोल लोग कैसे बोलें, इसके बारे में सोचिए। अगर इसके लिए कुछ दिन खुद बोलना बंद करना पड़े, तो बोलना बंद कर दीजिए। आप बहुत बोल चुके हैं, अब अबोल बना दिए गए लोगों को बोलने दीजिए।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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