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ओलंपिक खेल और आरएसएस का तथाकथित ‘विश्वगुरु’

आरएसएस व भाजपा पिछले दस सालों से देश पर राज कर रहे हैं। देश की पूरी मशीनरी, पूरी व्यवस्था पर उनका संपूर्ण नियंत्रण है। उनके अपने खजाने ठसाठस भरे हुए हैं। दिल्ली और नागपुर में उनके आलीशान कार्यालय हैं। मगर फिर भी पेरिस ओलंपिक में हम 71वें स्थान पर रहे। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह आलेख

आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम की ज्योति याराजी ने 2024 के ओलंपिक खेलों में 100 मीटर बाधादौड़ के रेपेशाज़ राउंड की हीट वन में शानदार प्रदर्शन करते हुए चौथा स्थान हासिल किया। जिस समय वे पेरिस में मेडल हासिल करने के जद्दोजहद में थीं, उस समय एक तेलुगू टीवी चैनल का प्रतिनिधि उनके झोपड़ी-नुमा मकान में उनके अभिवावकों का इंटरव्यू ले रहा था। टीवी के परदे पर उनके पिता काफी बूढ़े नज़र आ रहे थे। हालांकि शायद उनकी उम्र पचास से कुछ ही ज्यादा है। उन्होंने चैनल को बताया कि जब ज्योति स्थानीय सरकारी स्कूल में पढ़ रही थी, तब वे क्लास छोड़कर खेलने जाने पर उसकी पिटाई करते थे। वे [ज्योति के पिता] चाहते थे कि वह दसवीं कक्षा पास करके शादी कर ले। ज्योति की मां ने चैनल को बताया, “शुरुआत में हम उसका विरोध करते थे। मगर अब हमें लगता है कि वह हमारी माली हालत को बेहतर बनाएगी। हम बहुत खुश हैं कि वह ओलंपिक में खेल रही है।” जाहिर है कि ज्योति की मां को उम्मीद थी कि उनकी लड़की दुनिया की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल और ढेर सारे पैसे लेकर लौटेगी। ज्योति पहले भी कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीत चुकी थीं। उनमें से अधिकांश मेडल उनके झोपड़ी-नुमा मकान की दीवारों पर टंगे हुए हैं।

चैनल ने ज्योति के पिता को काम पर जाते हुए भी दिखाया। वे एक निर्माणाधीन गगनचुंबी इमारत में चौकीदारी करते हैं। स्पष्ट तौर पर उनका नियोक्ता कोई बड़ा बिल्डर होगा। राष्ट्रीय अख़बारों ने भी ज्योति के बारे में लिखा। एक ने बताया, “आंध्र प्रदेश की बेटी ज्योति याराजी पहली बार ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने जा रही हैं। ज्योति की ज़िंदगी दृढ़ निश्चय, हिम्मत और कड़ी मेहनत की कहानी है। एक सिक्यूरिटी गार्ड की बेटी ज्योति याराजी जब पेरिस में 100 मीटर बाधा दौड़ में भाग लेंगी तब वे एक तरह से अपनी ज़िंदगी की दौड़ का री-प्ले कर रही होंगी।”

ज्योति अपने सरकारी स्कूल के अध्यापकों की मदद से यह मुकाम हासिल कर सकीं। उनके अध्यापकों ने दो तरह से उनकी मदद की। एक तरफ उन्होंने ज्योति के गरीब माता-पिता को समझाया कि उनकी बेटी दौड़ और ऊंची कूद में काफी आगे है और इसलिए उन्हें उसे खेलने देना चाहिए। दूसरी तरफ, वे अपने खर्च पर ज्योति को राज्य के अंदर और बाहर भी खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए ले गए। सरकारी स्कूलों के अध्यापक शायद ही ऐसा करते हैं।

ज्योति की मां ने बताया, “वह जहां भी खेलने जाती थी, उसे सोने का तमगा मिलता था और साथ ही कुछ पैसे भी।” धीरे-धीरे ज्योति अपने माता-पिता की उम्मीद बन गई। चूंकि वह पेरिस में तमगा हासिल नहीं कर सकी, इसलिए पूरे देश में उसकी वाहवाही नहीं हुई। वह सेलेब्रिटी नहीं बनी। चंद्रबाबू नायडू और पवन कल्याण की सरकार ने ज्योति का अभिनंदन नहीं किया। सरकार ने उन्हें और उनके माता-पिता को झोपड़-पट्टी से निकालकर एक फ्लैट देने, जिसमें वे लोग तनिक आराम से रह पाते, की पेशकश भी नहीं की।

ज्योति की ज़िंदगी और उनका संघर्ष एक बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ प्रश्न उपस्थित करता है।

वर्ष 2023 में हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में हुए विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप के दौरान प्रदर्शन करतीं ज्योति याराजी। वह ओलंपिक में 100 मीटर बाधादौड़ स्पर्द्धा के लिए क्वालिफाई करनेवाली पहली भारतीय खिलाड़ी हैं

ओलंपिक खेलों में भारत केवल छह पदक हासिल कर सका, जो कि निहायत शर्मनाक है। उसे एक भी स्वर्ण पदक नहीं मिला और पदकों की तालिका में उसका स्थान 71वां रहा। खेलों की दुनिया में हमारी यह दुर्दशा बताती है कि हमारे देश के नागरिक शारीरिक रूप से मज़बूत नहीं हैं और खेलों में कमज़ोर हैं। यह आरएसएस/भाजपा के खेलों के प्रति नज़रिए को भी रेखांकित करता है। तथाकथित ‘विश्वगुरु’ को ये छह मेडल हासिल करने के लिए भी हमरे लड़के-लड़कियों को प्रशिक्षित करने के लिए विदेशी कोच नियुक्त करने पड़े।

विनेश फोगाट ने अपने जीवन के सबसे कठिन क्षणों, जब पेरिस में वे फाइनल में खेल नहीं सकीं, में उन्हें संभालने के लिए अपने विदेशी कोच की तारीफ़ की। दूसरी तरफ, उन्हें भारतीय कुश्ती संघ के तत्कालीन अध्यक्ष और भाजपा के सांसद रहे बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ लंबा संघर्ष करना पड़ा। बृजभूषण पर अनेक गंभीर आरोप थे। इससे हमें आरएसएस व भाजपा की संस्कृति का अंदाज़ा लगता है।

संघ व भाजपा के राज के 10 साल बाद

आरएसएस व भाजपा पिछले दस सालों से देश पर राज कर रहे हैं। देश की पूरी मशीनरी, पूरी व्यवस्था पर उनका संपूर्ण नियंत्रण है। उनके अपने खजाने ठसाठस भरे हुए हैं। दिल्ली और नागपुर में उनके आलीशान कार्यालय हैं। मगर फिर भी पेरिस ओलंपिक में हम 71वें स्थान पर रहे। आरएसएस-भाजपा के राज में एकाधिकारी पूंजीपति जनता का शोषण करने और दुनिया के रईसों में पहला, दूसरा या तीसरा स्थान हासिल करने के लिए अमरीकी और चीनी पूंजीपतियों से मुकाबिल हैं। मगर अन्य देशों के कुबेरपतियों की तरह, हमारे सेठ निःशुल्क प्रशिक्षण केंद्र स्थापित नहीं करते, जहां ज्योति याराजी जैसे गरीब बच्चे प्रशिक्षण हासिल कर सकें। वे प्रतिभाशाली लेकिन निर्धन खिलाड़ियों के प्रशिक्षण और यात्रा का खर्च उठाने के लिए भी तैयार नहीं हैं। मगर वे फ़िल्मी सितारों और राजनेताओं को विवाह समारोहों में भाग लेने के लिए चार्टर्ड हवाईजहाजों से विदेश ले जाते हैं। आरएसएस-भाजपा के नेताओं को भी इन ऐश्वर्यपूर्ण यात्राओं का आनंद लेने का मौका मिलता है। यह है आरएसएस-भाजपा राज का नया राष्ट्रवाद।

सवाल : ओलंपिक में 71वें स्थान पर रहा क्यों रहा भारत?

कई दशकों से आरएसएस द्वारा खेल सहित हर क्षेत्र में देश के कमज़ोर प्रदर्शन के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा है। मगर दस साल के उनके अबाध शासनकाल, जिसमें पूरी व्यवस्था पर उनका कड़ा नियंत्रण था, के बाद भी खेल के क्षेत्र में भारत की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। बल्कि वह पहले से बदतर ही हुई है। ऐसा क्यों? राष्ट्रवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, विश्व पटल पर भारत की स्थिति में प्रतिबिंबित क्यों नहीं हो रही है?

कांग्रेस के विपरीत, आरएसएस का स्कूलों का अपना विशाल नेटवर्क है। उसके स्कूलों से कोई विश्व-विजेता खिलाड़ी क्यों नहीं निकला? कोई ऐसा खिलाड़ी क्यों नहीं निकला, जो खेल के वैश्विक मंचों पर चमकदार प्रदर्शन कर सके?

‘विश्वगुरु’ पेरिस में फिसड्डी क्यों साबित हुआ

सुबह और शाम की कसरत, आरएसएस की शाखाओं का अनिवार्य हिस्सा है। जाहिर तौर पर यह खेल और खिलाड़ियों दोनों के लिए अच्छा है। मगर क्या कारण है कि आरएसएस के स्कूलों के विद्यार्थी और शाखाओं में भाग लेने वाले लड़के (राष्ट्रवादी शाखाओं में लड़कियों के लिए कोई स्थान नहीं है) खेलों में निपुणता हासिल नहीं कर पाते? इनके रहते हमें तो चीन और जापान से ज्यादा मेडल जीतने चाहिए थे। ये दोनों एशियाई देश हैं और कम-से-कम आरएसएस मार्का राष्ट्रवाद और उसकी विश्वगुरु बनने की मुहिम इनके खिलाफ तो कारगार होनी ही चाहिए थी।

आरएसएस का नेतृत्व विरोधाभासी बातें करता रहा है। एक ओर वह भारत को विश्वगुरु बनाना चाहता है तो दूसरी ओर वह पुराणों की परंपरा को भी संरक्षित रखना चाहता है। क्या इस परंपरा में खेलों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या ब्राह्मणवादी गुरुकुलों में सभी जातियों के बच्चों को जिमनास्टिक्स सिखाया जाता था? गुरुकुलों का जोर केवल पुराणों के संस्कृत श्लोकों और धनुर्विद्या सिखाने पर पर था। याद रहे कि ओलंपिक प्राचीन यूनान की जिमनास्टिक्स संस्कृति की उपज है।

अरस्तु और प्लेटो ने इस बात पर जोर दिया कि स्कूली शिक्षा कठोर होनी चाहिए और उसमें जिमनास्टिक्स का समावेश होना चाहिए। क्या प्राचीन ब्राह्मणवादी शिक्षा व्यवस्था में इस तरह की शिक्षा का प्रावधान था? जब प्राचीन और मध्यकालीन भारत में कृषक समुदाय, जिसे शूद्र कहा जाता था, के लिए संस्कृत, धनुर्विद्या और कट्टीसमु (तलवारबाजी) सीखने के लिए भी गुरुकुलों में प्रवेश करना निषेध था, तो सामुदायिक और प्रतिस्पर्धात्मक खेल संस्कृति का विकास भला कैसे होता?

यूरोप, और विशेषकर यूनान में गुलामों की संतानों को भी जिमनास्टिक्स की शिक्षा हासिल करने की अनुमति थी और इसी से प्रतिस्पर्धा का वह भाव विकसित हुआ, जिससे अंततः ओलंपिक खेल उभरे। शेष पश्चिमी दुनिया में भी इसी तरह की खेल संस्कृति है। वहां के स्कूलों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों – चाहे वे श्वेत हो, अश्वेत हों या सांवले – को प्रशिक्षण हासिल करने और वैश्विक, ओलंपिक स्तर पर प्रतियोगिताओं में भाग लेने का मौका मिलता है। पश्चिम का धनिक वर्ग, पारंपरिक शिक्षा के अलावा खेलों पर भी अपना धन खर्च करता है।

भारत और यूनान की तरह चीन भी एक प्राचीन देश है। वहां भी एक मज़बूत खेल संस्कृति है और यही कारण है कि चीन आज अमरीका से मुकाबला करने की स्थिति में है। क्या भारत में ब्राह्मणवाद ने किसी भी तरह की खेल संस्कृति का विकास किया? आरएसएस के पास वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं है। यदि वह चाहता है कि भारत विश्वगुरु बने, तो ऐसे में इन राष्ट्रवादी स्कूलों से बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली खिलाड़ी निकलने चाहिए थे। मगर समस्या यह है कि उनकी परंपरा, सामूहिक प्रतिस्पर्धात्मक संस्कृति को नकारती है।

और ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फारसी क्या’ की तर्ज पर भारत में जिन चंद खिलाड़ियों ने ओलंपिक या अन्य अंतरराष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में पदक हासिल किये हैं – चाहे वे पी.टी. उषा हों, पी.वी. सिंधु हों, सानिया मिर्ज़ा हों या फिर मैरी कॉम, राजकुमार पाल या निखहत ज़रीन – इनमें से कोई भी आरएसएस की शिक्षा प्रणाली की उपज नहीं है।

भारत की शीर्ष महिला पहलवानों में से एक विनेश फोगाट भी गांव के एक सरकारी स्कूल में पढ़ी हैं और उनके परिवार में पहलवानी की परंपरा थी। हरियाणा में खाप पंचायतें अपने-अपने पहलवान तैयार करतीं हैं। विनेश उस परंपरा की उपज हैं न कि आरएसएस-भाजपा मार्का हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद से प्रेरित स्कूल शिक्षा प्रणाली की।

अगर ज्योति को सुविधा संपन्न स्कूल का वातावरण और प्रशिक्षण के लिए आर्थिक मदद मिली होती तो वे भी अपने देश के लिए ज़रूर पदक जीततीं।

देश के लोगों की शारीरिक ताकत और मानसिक क्षमता दोनों के विकास के लिए बढ़िया स्कूली जिमनास्टिक शिक्षा ज़रूरी है। क्या आरएसएस के स्कूलों का नेटवर्क उच्च गुणवत्ता के खिलाड़ी और बौद्धिक क्षमता से लैस विद्यार्थी गढ़ सकता है? अब तक तो ऐसा कोई प्रमाण सामने नहीं आया है।

दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे धनी संगठन 

आरएसएस पूरी दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे धनी सामाजिक संगठन है, जो पिछले सौ सालों से पूरे देश में काम कर रहा है। उसका खुद का दावा है कि वह एक अर्धसैनिक संगठन है, जो हमारे देश की सेना से भी पहले हमारी सीमाओं तक पहुंचने में सक्षम है। मगर खेल जगत में वह ओलंपिक तक भी नहीं पहुंच सका। केंद्र सरकार के अलावा, अनेक राज्य सरकारें भी उसके नियंत्रण में हैं। लेकिन उसकी सांस्कृतिक विरासत का ओलंपिक खेलों, जो पूरी दुनिया में बच्चों, युवाओं और बुजुर्गों द्वारा देखे जाते हैं और उनके बीच चर्चा का विषय होते हैं, में हमारे देश के प्रदर्शन पर असर क्यों नहीं पड़ रहा है?

आरएसएस का दावा है कि वह हजारों स्कूलों का संचालन करता है। ये स्कूल दो प्रकार के हैं – शहरों के लिए विद्या भारती स्कूल और ग्रामीण व आदिवासी इलाकों के लिए सरस्वती शिशु मंदिर।

एक स्रोत के अनुसार, “आरएसएस की शिक्षा शाखा विद्या भारती, पूरे देश में करीब 12,000 स्कूलों का संचालन करती है, जिनमें लगभग 3.2 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं।” पश्चिम बंगाल में संघ की शैक्षणिक गतिविधियों के बारे में एक लेख के अनुसार, “पश्चिम बंगाल में आरएसएस द्वारा संचालित 300 स्कूलों में करीब 92,000 विद्यार्थी हैं।” मगर विद्या भारती स्कूल और सरस्वती शिशु मंदिर खेल के क्षेत्र में देश को मजबूत क्यों नहीं बना पा रहे हैं?

इन स्कूलों से ऐसे कितने प्रशिक्षित महिला और पुरुष खिलाड़ी निकले, जो 2024 के ओलंपिक खेलों तक पहुंच सके?

विद्या भारती के अनुसार, उसके लक्ष्य हैं– “विद्यार्थियों में राष्ट्रवाद, सामाजिक समानता और सांप्रदायिक सद्भाव के भाव पैदा करना, उन्हें पर्यावरण से जुड़े सरोकारों के प्रति संवेदनशील बनाना और हमारे समृद्ध मूल्यों और हमारी सांस्कृतिक विरासत से समझौता किये बगैर उन्हें उन्नत तकनीकी में निपुण बनाना।”

आखिर वे किस सांस्कृतिक विरासत की बात कर रहे हैं? क्या खेल संस्कृति उस विरासत का भाग है? क्या वे देश को बता सकते हैं कि प्राचीन भारत में किस काल की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में ऐसी खेल संस्कृति थी, जो सभी जातियों के बच्चों के बीच समावेशी प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करती थी?

भविष्य में, देश को खेल जगत की एक शक्ति बनाने के लिए क्या प्रयास किये जा सकते हैं? भारत की सभी सत्ताधारी पार्टियों को एक साथ मिलकर यह विचार करना चाहिए कि हमारे शहरी और ग्रामीण इलाकों में खेलों के विकास के लिए क्या किया जा सकता है।

(यह आलेख पूर्व में काउंटरकरेंट्स डॉट ओआरजी द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित है तथा यहां लेखक की सहमति से हिंदी में प्रकाशित, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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