धर्मांतरण के संबंध में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक विवादास्पद बयान दिया है। बीते 25 सितंबर, 2024 को राजस्थान की राजधानी जयपुर में एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने दावा किया कि देश में धर्मांतरण की एक संगठित प्रक्रिया चल रही है, जो न केवल अवैध है, बल्कि देश के लिए अत्यंत खतरनाक भी है। उन्होंने कहा कि धर्मांतरण में शामिल लोग जनता को मीठी बातों और प्रलोभन से फंसाते हैं, और ऐसे तत्व देश के कमजोर वर्गों, विशेष रूप से आदिवासियों के बीच घुसपैठ कर रहे हैं।
गाय, गोमांस और लव जेहाद के बाद धर्मांतरण का मुद्दा
उपराष्ट्रपति का यह बयान ऐसे समय में आया है जब हरियाणा में चुनावी सरगर्मियां चरम पर हैं। भाजपा पूरा प्रयास कर रही है कि सत्ता कांग्रेस या अन्य दलों के हाथ न जाए। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की जमानत के बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव और भी रोचक हो गया है। यह संभावना जताई जा रही है कि चुनावी दौड़ में पिछड़ रही भाजपा ने धर्मांतरण का मुद्दा उठाकर मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने का प्रयास किया हो। भाजपा नेता पहले से ही गाय, गोमांस और लव जिहाद के मुद्दों को उछाल रहे हैं, और झारखंड में बांग्लादेशी तथा रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ का डर दिखाकर बहुसंख्यक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।
73 वर्षीय जगदीप धनखड़, हिंदू जाट समुदाय से आते हैं और उनका हरियाणा की राजनीति में लंबा अनुभव है। 1990 में समाजवादी नेता चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार में उन्हें संसदीय कार्य मंत्री बनाया गया था। चुनाव से पहले धर्मांतरण पर उनके बयान से भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना जताई जा रही है।
मगर धर्म आधारित सांप्रदायिक राजनीति किसी पार्टी को कुछ वोट दिला सकती है, लेकिन इसका देश पर गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अपने भाषण में धनखड़ ने ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्यों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उपराष्ट्रपति ने यह उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा कि धर्म तय करने का अधिकार हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों में आता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में छीना नहीं जा सकता। यदि ऐसा किया गया, तो देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा।
संविधान देता है धर्म चुनने की आजादी
एक उदार समाज के निर्माण के लिए नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार दिया जाना चाहिए, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता भी शामिल है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता यह सुनिश्चित करती है कि राज्य किसी भी नागरिक के निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करेगा। लोकतांत्रिक और निररंकुश व्यवस्था में यही बुनियादी अंतर है कि लोकतंत्र हर नागरिक को अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी देता है। लोकतंत्र में नागरिक स्वतंत्र हैं कि वे क्या खाना चाहते हैं, क्या पहनना चाहते हैं, किससे शादी करना चाहते हैं, कहां रहना चाहते हैं, क्या काम करना चाहते हैं और किस धर्म का पालन करना चाहते हैं।
यह चिंता का विषय है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के उपराष्ट्रपति धर्मांतरण पर असत्यापित दावे कर रहे हैं। उनके भाषण से ऐसा प्रतीत होता है कि देश में एक बड़ी साजिश चल रही है जिसमें बहुसंख्यक वर्ग को अल्पसंख्यक बनाया जा रहा है और इसके पीछे अल्पसंख्यक समुदायों का हाथ है। जब उन्होंने कहा कि देश में संगठित तरीके से धर्मांतरण हो रहा है, तो उन्होंने इसका कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया।
हिंदुत्ववादी शक्तियां बार-बार दावा करती हैं कि हिंदुओं का धर्मांतरण हो रहा है, लेकिन आज तक कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया गया है। भगवा शक्तियां मुस्लिम आबादी के बढ़ने का डर भी दिखाती हैं, जबकि मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर में लगातार कमी आई है। यह प्रचार किया जाता है कि प्रलोभन या बलपूर्वक हिंदुओं का धर्म परिवर्तन किया जा रहा है, जिससे देश की अखंडता कमजोर हो रही है। यह सांप्रदायिक सोच इस आधार पर है कि देश को एक विशेष धर्म से जोड़ा जा रहा है, जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म को विदेशी माना जा रहा है।
धनखड़ ने भी इसी प्रकार की बातें कीं और देश को सनातन धर्म से जोड़ दिया, जबकि हमारा संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। इतिहास गवाह है कि भारत में सदियों से सभी धर्मों के लोग सौहार्द के साथ रहते आए हैं। यहां ईश्वर की पूजा भी होती है और अल्लाह की इबादत भी।
धर्म परिवर्तन के बारे में यह कहना कि कमजोर वर्गों को प्रलोभन देकर उन्हें हिंदू से मुस्लिम या ईसाई बनाया जा रहा है, अल्पसंख्यकों के खिलाफ है और उन हिंदुओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ भी है जिन्होंने अपनी इच्छा से धर्म बदला है।
धर्म परिवर्तन को दलितों के लिए मुक्ति का मार्ग
डॉ. आंबेडकर ने धर्म परिवर्तन को दलितों के लिए मुक्ति का मार्ग बताया था, क्योंकि जाति-व्यवस्था के तहत उन्हें अछूत समझा जाता था। उन्होंने किसी प्रलोभन के कारण बौद्ध धर्म स्वीकार नहीं किया, बल्कि इसलिए कि यह धर्म दलितों और वंचितों को समानता और प्रगति का अवसर प्रदान करता है।
जहां आरएसएस दशकों से आदिवासियों को हिंदू बनाने का प्रयास करतर रहा है, वहीं भगवा ताकतें ईसाई मिशनरियों पर धर्मांतरण का आरोप लगाती रही हैं। कई बार ईसाई मिशनरियों पर हमले हुए हैं और कुछ को जिंदा भी जलाया गया है।
यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि दलित और कमजोर वर्गों ने इस्लाम और ईसाई धर्म को भ्रम में नहीं, बल्कि जाति-व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए अपनाया। मुस्लिम शासकों के समय में अधिकांशत: दलित-पिछड़ों ही इस्लाम अपनाया, जिनमें से अधिकतर को आज भी ओबीसी दर्जा प्राप्त है और वे पसमांदा के रूप में जाने जाते हैं। आज भी धर्म प्रचार के मामले में सबसे अधिक आक्रामक भगवाधारी लोग हैं, लेकिन निर्दोष मुसलमान और ईसाई धर्मांतरण के आरोप में जेलों में बंद किए जा रहे हैं।
जाहिर तौर पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, यदि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग सांप्रदायिक बयान देने लगें, तो यह स्थिति चिंताजनक है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in