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दलित आलोचना की कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य (संदर्भ : डॉ. धर्मवीर, पहला भाग)

डॉ. धर्मवीर को प्रेमचंद से यही तो अपेक्षा थी कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री की तरह वह भी ‘कफ़न’ कहानी में जमींदार के नैतिक पतन की कहानी लिखते और ‘कफ़न’ कहानी का सारा सच पाठकों के सामने रख देते। पढ़ें, इस समालोचना का पहला भाग

बीसवीं सदी के आखिरी तीन दशक साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक लिहाज से बड़े उथल-पुथल वाले रहे हैं। इन दशकों में जहां दलित राजनीति ने अंगड़ाई ली, वहीं साहित्यिक और आलोचना के परिसर में दलित साहित्य और चेतना का उभार एक बड़ी परिघटना थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल सिंह चौहान और श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ सरीखे दलित लेखकों ने कथा, कहानी और कविता को संघर्ष, पीड़ा एवं यथार्थ की ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया। इस पूरी सृजन प्रक्रिया से हिंदी साहित्य की चौहद्दी का विस्तार हुआ। फिर बीसवीं सदी के आखिरी दशक में ही मंडल कमीशन और भूमंडलीकरण की गतिविधियां ज़ोर पकड़ने लगीं। इन्हीं सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों के दौरान प्रखर दलित चिंतक और आलोचक डॉ. धर्मवीर का हिंदी आलोचना में पदार्पण नए प्रतिमान और बदलाव का सूचक था। वे हिंदी आलोचना की सार्वजनिक तथा अकादमिक दुनिया की चौहद्दी में दलित चिंतक और आलोचक के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने हिंदी आलोचना की न सिर्फ पुरानी ज़मीन तोड़ी, बल्कि उसकी बौद्धिकता, ज्ञानकोश, कसौटियां और प्रतिमान पर सवाल उठाकर उसे सिर के बल खड़ा करने का प्रयास किया। डॉ. धर्मवीर ने कबीर के चिंतन और साहित्य पर गंभीर अकादमिक काम किया है। उनके निष्कर्ष और स्थापनाएं नवाचार से भरे होते थे। इसी तरह प्रेमचंद की कहानियों पर भी उन्होंने अपनी पैनी नजर डाली। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी आलोचना की दुनिया में कबीर और प्रेमचंद को लेकर एक गंभीर विमर्श का जन्म हुआ।

सन् 1998 में हिंदी आलोचना ने अपनी करवट तब बदली जब डॉ. धर्मवीर की आलोचनात्मक किताब ‘कबीर के आलोचक’ प्रकाशित होकर आई। इस किताब से हिंदी आलोचना की दुनिया में काफी उथल-पुथल मचा। हुआ यूं कि डॉ. धर्मवीर ने रामचंद्र शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कबीर पर काम करने वाले विद्वानों को सवालों के दायरे में खड़ा करते हुए, सवाल उठाया कि हिंदू आलोचकों ने कबीर को रामानंदी दृष्टि से जांचा और परखा है।

यह पहला अवसर था जब किसी दलित आलोचक ने हिंदी आलोचना के सवर्ण आचार्यों की बौद्धिकता और अकादमिक समझ पर सवाल उठाकर उनके ज्ञानकोश को चुनौती पेश की थी। कुछ प्रगतिशील आलोचक डॉ. धर्मवीर के पक्ष में आए। लेकिन उनकी प्रगतिशीलता की पोल शीघ्र ही खुल गई। जब इन प्रगतिशील आलोचकों ने ‘कबीर के आलोचक’ को हिंदी आलोचना की किताब न कह कर दलित विमर्श की किताब कहा।

यह बड़े मज़े की बात है कि हिंदी आलोचकों को द्विवेदी, शुक्ल तथा अग्रवाल वाले कबीर बड़े अच्छे लगते हैं लेकिन दलित आलोचक डॉ. धर्मवीर के कबीर को स्वीकार करते समय उनका सवर्णपन आड़े आ जाता है।

शुरुआती दौर में सवर्ण आलोचकों को लग रहा था कि डॉ. धर्मवीर जल्द ही निपट जाएंगे। शायद उन्हें मालूम नहीं था कि डॉ. धर्मवीर हिंदी आलोचना के अखाड़े में इतनी तैयारी के साथ आए हैं। जब ‘कबीर के आलोचक’ किताब प्रकाशित होकर आई तो हिंदी के सवर्ण आलोचक डॉ. धर्मवीर के सवालों का जवाब देने के बजाय अपने-अपने गुरुओं के बचाव में मैदान में कूद पड़े। बड़ी दिलचस्प बात है कि सवर्ण आलोचकों की तमाम कयावदे और उपक्रम भी उनके गुरुओं को डॉ. धर्मवीर के तर्कों से बचा नहीं सके। डॉ. धर्मवीर ने अपनी वैचारिक और आलोचनात्मक यात्रा जो कबीर के आलोचक से शुरू की थी, वह दलित विमर्श, भाषा विमर्श, स्त्री विमर्श, बुद्ध विमर्श, प्रेमचंद के पाठ से होते हुए महान दार्शनिक आजीवक मक्खलि गोसाल की वैचारिकी तक जाती है।

वास्तव में डॉ. धर्मवीर ने अपने अध्ययन और तर्कों से इन तीन दशकों में हिंदी की सार्वजनिक और अकादमिक दुनिया का विस्तार कर हिंदी समाज को बहस तलब विमर्श देकर आलोचना की सूरत बदल दी।

जब बीसवीं सदी के आठवें दशक में दलित साहित्य और विमर्श का उभार हुआ तो सवर्ण आलोचकों की ओर से प्रेमचंद को एक दलित हितैषी के तौर पर पेश करने की कवायदों को अंजाम दिया जाने लगा। ऐसे आलोचकों ने दलित लेखकों को इस बात की चुनौती दे डाली कि प्रेमचंद से बड़ा दलित समर्थक लेखक दूसरा नहीं है। इस तरह की दलीलों से न सिर्फ दलित लेखकों की अनदेखी की गई, बल्कि दलित पीड़ा को बताने का श्रेय प्रगतिशील लेखकों के खाते में डाल दिया गया। जब बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में हिंदी साहित्य के भीतर अस्मितावादी विमर्श की गतिविधिया ज़ोर पकड़ने लगीं, दलित विमर्शकारों ने हिंदी साहित्य को दलित कसौटी पर जांचने-परखने पर ज़ोर दिया। डॉ. धर्मवीर ने जब प्रेमचंद को दलित कसौटी पर जांचा-परखा तो दक्षिण-वाम खेमे में एक कोहराम-सा खड़ा हो गया। दलित आलोचना के आने से हिंदी साहित्य के भीतर किस प्रकार का बदलाव हुआ, खासतौर पर जब डॉ. धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद की आलोचना की तब उसको लेकर प्रतिक्रिया कैसे हुई, यह आलेख इसी पर केंद्रित है।

सन् 2004 में दलित विमर्श की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई, जिनका सीधे तौर पर संबंध प्रेमचंद और दलित विमर्श से है। घटना यह थी कि प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर राजेंद्र यादव ने दलित लेखक श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के अतिथि संपादन में ‘हंस’ पत्रिका का दलित विशेषांक निकालने का निश्चय किया। दिनांक 31 जुलाई, 2004 को प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर जहां एक ओर राजेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘हंस’ के दलित विशेषांक का लोकार्पण हो रहा था, उसी दिन जंतर-मंतर पर भारतीय दलित साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष सोहनपाल सुमनाक्षर और गुरु रविदास जन्मोत्सव कमेटी के अध्यक्ष मनोज कुमार की अगुआई में प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ की प्रतियां आग के हवाले की जा रही थीं। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा था कि प्रेमचंद ने अपनी कृति ‘रंगभूमि’ में चमारों पर जातिगत टिप्पणी करके उन्हें अपमानित किया है।

इस घटना पर प्रतिक्रिया और निंदा का दौर चला पड़ा। सवर्ण आलोचकों का कहना था कि किताब का जवाब किताब लिखकर देना चाहिए। इन सभी घटनाओं के दौरान डॉ. धर्मवीर दलित चिंतन की स्वतंत्र वैचारिकी और इतिहास की खोज में लगे हुए थे। सन् 2005 दलित चिंतन की दृष्टि से बहुत संघर्ष का साल रहा था। यह साल दलित दृष्टि से दलित चितंन की कसौटी, उसकी वैचारिकी, प्रतिबद्धता और कौन दलित चिंतन के पक्ष और विरोध में है, इसे परखने का था। इसी वर्ष डॉ. धर्मवीर की आलोचनात्मक किताब ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ प्रकाशित हुई। यह किताब प्रकाशित होते ही हिंदी आलोचना में हड़कंप मच गया। हिंदी आलोचकों ने यह कल्पना नहीं की थी कि प्रेमचंद की कोई इतनी कठोर आलोचना कर सकता है। यह किताब प्रकाशित होने के पहले दिन से चर्चा में आ गई थी। 6 सितंबर, 2005 को राजेंद्र भवन में इस किताब लोकार्पण समारोह रखा गया। इस अवसर पर नामवर सिंह को भी आमंत्रित किया गया, लेकिन उन्होंने इस लोकार्पण समारोह का यह कहते हुए बहिष्कार कर दिया कि प्रेमचंद को सामंत का मुंशी बताया गया है। जब इस किताब का लोकार्पण समारोह चल रहा था, उसी समय विमल थोराट, अनिता भारती आदि साहित्यकारों ने इस लोकार्पण समारोह का विरोध करते हुए डॉ. धर्मवीर के खिलाफ न सिर्फ नारेबाज़ी की, बल्कि उन पर चप्पलें फेंकी। इसके पीछे तर्क दिया गया कि डॉ. धर्मवीर ने अपनी किताब में दलित स्त्रियों का चरित्र हनन किया है।

डॉ. धर्मवीर व प्रेमचंद

इस घटना को लेकर हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में डॉ. धर्मवीर की प्रेमचंद संबंधी आलोचना पर एक बहस चली। इस बहस में शामिल कुछ लेखकों का कहना था कि विरोध तो सही है, लेकिन विरोध का तरीका गलत है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने यह पूरी घटना न सिर्फ अपनी आंखों से देखी थी बल्कि इस लोकार्पण समारोह के संचालक भी थे। उन्होने इस पूरे विवाद पर ‘जनसत्ता’ में ‘साहित्य में संवाद चले या चप्पल जूते?’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इस लेख से पता चलता है कि दलित स्त्रियां तो सिर्फ एक मोहरा थीं। इस घटना के असली सूत्रधार तो सवर्ण आलोचक थे। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने इस घटना की पठकथा लिखनेवालों का खुलासा करते हुए बताया कि– “इस घटना के पीछे नामवर सिंह और राजेंद्र यादव का ही प्रोत्साहन और संरक्षण प्राप्त नहीं था, बल्कि ‘युद्धरत आम आदमी’ की पैरोकार रमाणिका गुप्ता भी इनकी गतिविधियों को मोबाइल पर संचालित कर रही थीं। घटना के बाद उनके फाउंडेशन में ‘शाबाश’ पार्टी का आयोजन भी किया गया।” (देखें, साहित्य में संवाद चले या चप्पल जूते?, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, जनसत्ता, 18 सितंबर, 2005, नई दिल्ली)

अब यह जानना दिलचस्प रहेगा कि डॉ. धर्मवीर ने इस किताब में ऐसा क्या लिखा था, जिसे लेकर हिंदी आलोचना में इतना भारी वितंडा खड़ा हो गया? वास्तव में इस किताब की आलोचना के केंद्र में प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी है। प्रेमचंद की यह कहानी सर्वप्रथम हिंदी में ‘चांद’ पत्रिका के अप्रैल 1936 के अंक में प्रकाशित हुई थी। ध्यातव्य है कि यह कहानी लिखने से पहले गोलमेज़ कांफ्रेंस और पूना-पैक्ट जैसी ऐतहासिक घटनाएं घट चुकी थीं। इसी दौरान हिंदू धर्म की जाति-व्यवस्था के भेदभाव और सवर्ण अग्रदूतों की कथनी-करनी से तंग आकर बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने का सार्वजनिक ऐलान भी कर दिया था। देखा जाए तो प्रेमचंद जिस समय यह कहानी लिख रहे थे, उस समय सवर्णों का अछूतोद्धार अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। प्रेमचंद की यह कफ़न कहानी दलितों पर जरूर केंद्रित है, लेकिन इसका दलित समस्या और आंदोलन से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

डॉ. धर्मवीर ने अपनी किताब ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ में ‘कफ़न’ कहानी को ही आलोचना का आधार क्यों बनाया? इसका कारण डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि– “मुझे प्रेमचंद की इस कहानी ‘कफ़न’ पर कुछ भी नहीं कहना था यदि वे इसमें ‘चमार’ शब्द का प्रयोग न करते। यहां यह भी बता दिया जाए कि ‘चमार’ से मेरा मतलब किसी भी जाति के प्रयोग से है। जाति के बिना प्रेमचंद प्रगतिशील, जनवादी और मार्क्सवादी भाषा-शैली में अपनी बात कहते। इसकी उन्हें मनाही नहीं थी बल्कि पूरी-पूरी स्वतंत्रता थी। तो, उन्होंने भारत की सामाजिक व्यवस्था के पारंपरिक और बहु-प्रचलित शब्द ‘चमार’ का प्रयोग जान-बूझकर किया है।”

जाहिर-सी बात है कि कहानी में घीसू और माधव को ‘चमार’ बताना ही डॉ. धर्मवीर की आलोचना का आधार बना। वे अपनी किताब की शुरुआत प्रेमचंद की जाति बताने से करते हैं। उनका मानना है कि “भारत के जातीय वातावरण में किसी लेखक की जाति जानने से उसके साहित्य और विचार को समझने में काफी मदद मिलती है।” इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था से बहुत कुछ निर्धारित होता है। प्रेमचंद की जाति बताने के पीछे उनका तर्क है कि– “सही मूल्यांकन के लिए साहित्यकार की पैदाइश जानने के लाभ ही लाभ होते हैं। इससे मनुष्य के सामाजिक वातावरण और लौकिक सरोकार का पता चलता है। कोई व्यक्ति शून्य में नहीं रहता, साहित्यकार तो बिल्कुल नहीं। विश्व नागरिक बनने के लिए भी व्यक्ति को अपने मकान नंबर और गली का नाम लिखना पड़ता है। इसी भले संदर्भ में कहा जा रहा है कि प्रेमचंद कायस्थ थे।” इसके बाद वह कायस्थ शब्द की उत्पत्ति की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।

डॉ.धर्मवीर दावा है कि जाति के बतौर कायस्थ की मूल विचारधारा ब्राह्मण-विरोधी है। इसी सिलसिले में वह बताते हैं कि ब्राह्मण ने कायस्थ को शूद्र कहकर संबोधित किया है और कायस्थ ने भी हमेशा ब्राह्मण को चुनौती पेश की है। यहां उनका तर्क है कि– “धर्म के क्षेत्र में प्राचीन काल में कायस्थों ने बौद्ध धर्म को अपना कर ब्राह्मण धर्म को पीछे हटाया।” फिर वे कहते हैं कि विवेकानंद हिंदू स्वामी बनने के बाद भी ब्राह्मणों और उनके शास्त्रों का जितना विरोध किया, उसके मूल में उनकी कायस्थ चेतना ही थी। उनका मानना है कि कायस्थ समाज की मूल समस्या यह कि उन्होंने कभी अपना धर्म खड़ा नहीं किया। इसके अभाव में वह कभी गांधी का दामन पकड़ते हैं और कभी कुछ, और यही कायस्थ के मस्तिष्क की सनातन समस्या है। वह नाम लेकर बताते हैं कि– “आचार्य नरेंद्रदेव हों या कोई दूसरे बाबू संपूर्णानंद, सब इधर-उधर भटके हुए और भागे हुए फिरते हैं। अपना कोई खूंटा नहीं हैं। ईमानदारी यह है कि ब्राह्मण विरोध से कभी चूकते नहीं। कभी उल्टी होड़ में पड़कर ये महाऋषि तक बन जाते हैं, जहां जाकर ब्राह्मण से पूर्णतया हार जाते हैं।” यहां डॉ. धर्मवीर भूलवश आचार्य नरेंद्रदेव को भी कायस्थ बता जाते हैं। जहां तक मेरी जानकारी हैं कि आचार्य नरेंद्रदेव कायस्थ जाति से न होकर खत्री समाज से थे। डॉ. धर्मवीर की दृष्टि में कायस्थ विद्वानों को दलितों और शूद्रों के लिए नया धर्म खड़ा करके समाज का अगुवा बनना चाहिए था, लेकिन राजकाज और लगान के फेर में पड़कर अपनी संभावनाओं पर आकुंश लगा दिया।

वह लिखते हैं कि– “इस कौम की संभावना यह थी कि यह हिंदुस्तान के सारे शूद्रों और दलितों के लिए नया धर्म खड़ा करके उन्हें धार्मिक नेतृत्व प्रदान करती, लेकिन यह राजकाज और लगान के खातों में फेर-बदल करती और ब्राह्मण से उलझती आपाधापी में पड़ी रही। जब कभी इसके मन में धार्मिक इच्छा ने ज़ोर पकड़ा तो बौद्धकाल में बौद्ध भिक्षु बन गई। और हिंदू काल में हिंदू स्वामी बन गई।”

हिंदी की साहित्यिक दुनिया में माना जाता है कि प्रेमचंद सामंत विरोधी विचारों की मुखालफत करने वाले लेखक थे। डॉ. धर्मवीर अपनी आलोचना के हवाले से सवर्ण आलोचकों के इस तर्क को उलट देते हैं। उनका दावा है कि प्रेमचंद दलित और स्त्री के मामले में समय के दबाव में बदले हुए सामंती विचारों के व्यक्ति और प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। डॉ. धर्मवीर का सवाल है कि वर्ग-संघर्ष की गोलबंदी करने वाला लेखक जमींदार को दयालु कैसे बता सकता है? ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ कहानी में जमींदार के आचरण के संबंध में लिखा है कि– “जमींदार साहब दयालु थे।”

डॉ. धर्मवीर सवाल उठाते हैं कि– “जमीदार के बारे में ये शब्द उस लेखक की कलम से निकले हैं, जिसे हिंदी में महानतम और प्रगतिशील माना गया है। उसे वर्ग-संघर्ष का साहित्य लिखने वाला आदिपुरुष और पुरोधा बताया जाता है।” उनका कहना है कि प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ कहानी में चमारों का आधा-अधूरा ही सच लिखा। बाकी सच उनके भीतर दबा रहा गया। उनका दावा है कि ‘कफ़न’ सच का एक बटा नौ भाग ही है और आठ बटा नौ भाग अनकहा रहा गया। डॉ. धर्मवीर की दृष्टि में ‘कफ़न’ कहानी का पूरा सच यह है कि बुधिया के पेट में जमींदार के लड़के का बच्चा था और उसने बुधिया से खेत में बलात्कार किया था। डॉ. धर्मवीर का दावा है कि प्रेमचंद ने यह सच कहानी में दफ़न कर दिया। वह लिखते हैं कि– “सारी कहानी नए सिरे से स्पष्ट से हो जाती यदि प्रेमचंद इस कहानी की आखिरी लाइन में दलित जीवन का यह सच लिख देते कि गांव के जमींदार के लड़के ने बुधिया से खेत में बलात्कार किया था। तब, शब्द दीपक की तरह जल उठते और सब कुछ समझ में आ जाता।”

डॉ. धर्मवीर ने ‘कफ़न’ कहानी के विवेचन में जब यह सवाल उठाया कि बुधिया के पेट में जमींदार का बच्चा था तो हिंदी आलोचना की दुनिया में भूचाल आ गया। डॉ. धर्मवीर की आलोचना को दलित चिंतन की स्वत्रंता की कसौटी पर देखने के बजाय हिंदी के आलोचक उनको ट्रोल करने में लग गए। ऐसे आलोचकों का कहना था कि डॉ. धर्मवीर को कैसे पता चला कि बुधिया का बलात्कार जमींदार के लड़के ने किया था?

अब इस बात की पड़ताल की जाय कि डॉ. धर्मवीर जिस सवाल को उठा रहे हैं, उसकी वास्तविकता क्या है? वास्तव में औपनिवेशिक भारत में भी स्त्रियों और दलितों के प्रति जमींदारों का आचरण बहुत क्रूरतापूर्ण था। जमींदार-सामंत स्त्रियों को केवल भोग की वस्तु समझते थे। प्रेमचंद के दौर में सामंतों का स्त्रियों के प्रति नज़रिया क्या था? इसे प्रसिद्ध लेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी ‘ठकुरानी’ से बखूबी समझा जा सकता है। उनकी यह कहानी ‘चांद’ पत्रिका के नवंबर, 1929 के अंक प्रकाशित हुई थी। यह कहानी जमींदारों के सामंती आचरण को बड़ी शिद्दत से सामने लाती है। इस कहानी का मुख्य पात्र ठाकुर जाति का है। वह अपने आचरण और स्वभाव में घोर सामंती है। वह स्त्रियों की इज्जत-आबरू लूट कर अपनी सामंती कुंठा का प्रदर्शन करता रहता है। कथा लेखक ने कहानी के कथानक में दिखाया है कि एक उच्च श्रेणी की हिंदू युवती, जिसकी उम्र बीस-बाईस साल है, उसे ठाकुर की हवस का शिकार बनना पड़ता है। यह युवती अपनी इज्जत-आबरू बचाने के लिए ठाकुर से तमाम तरह की मिन्नतें करती है पर ठाकुर उसकी एक बात भी नहीं सुनता है। युवती और सामंत ठाकुर के बीच दिल दहला देने वाला यह संवाद देखिए– “पर तुझे मालूम है कि मेरे सामने ज़िद किसी की नहीं चलती, जो कहता हूं, उस पर भरोसा कर और मौज कर।” इतना कह कर ठाकुर ने स्त्री का हाथ पकड़ लिया। मदिरा की गंध से स्त्री का सिर भिन्ना गया और उसने बलपूर्वक घृणा को रोक कर कहा– “आप तो सरकार मर्द हैं, पर मैं मुंह दिखाने लायक़ न रही, यह भी तो सोचिए!”

“कम्बख़्त! प्याऊ पर पानी पिलाने वाली से रानी बनी जाती है, रांड़! और नखरे करे जाती है, क्या फिर भूरासिंह को बुलाऊं?”

“दया करो, नहीं मैं मर जाऊंगी !”

“मर कर अपनी ही जान से जाएगी। जीती रहेगी और मेरी मर्जी के माफ़िक़ काम करेगी तो मौज में दिन कट जावेंगे।”

“पर आप यह वादा करें कि आपकी नज़र तो न फिर जाएगी? आप मुझे दूध की मक्खी की तरह तो निकाल न फेकेंगे?”

“तब क्या बुढ़ापे तक मैं तुझे पोसे जाऊंगा?”

“चार दिन बाद क्या होगा?”

“नई-नई चिड़ियां फांस-फांस कर लाना, तेरा यही आदर-मान बना रहेगा।”

“हाय! मुझे यह भी करना होगा?”

“इसमें दोष क्या है? तुझे इनाम कम मिला है! निहाल हो गई – इसी तरह मैं उसे निहाल करता हूं, जो मेरी मर्जी के माफ़िक़ चलता है।”

“खैर, तक़दीर में जो लिखा था वह हुआ। और जो होना है वह होगा – मैं आपके अधीन हूं – आपसे बाहर नहीं।”

ठाकुर की बाछें खिल गईं, मद्य की बोतल उड़ेली जाने लगी। अभागिनी नारी धीरे-धीरे मन की घृणा रोक कर एक गिलास पी गई। उसके बाद? वह कुछ कहने योग्य नहीं। (देखें, ठकुरानी, आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री (1929), चांद : नवंबर, 88 से 89 तक)

आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी इसी मोड़ पर खत्म नहीं होती है। इस कहानी की आगे कथा तो और डरावनी है। कहानी के अगले हिस्से की कथा में दिखाया गया है कि एक शूद्र, जो नाई जाति से है। वह अभी अपनी नवविवाहित पत्नी का गौना कराकर लाया है। सामंत ठाकुर इस शूद्र नाई से नववधू को हवेली पर लाने के लिए दबाव डालता है। नाई के मना करने पर यह सामंत उस पर खूब जुल्म करता है। और अंत में ठाकुर की आज्ञा से उसका कारिंदा उसकी नवविवाहित पत्नी को हवेली पर उठा लाता है। आगे का संवाद इस प्रकार है–

शराब के घूंट गटागट करके ठाकुर साहब ने धरती में करबद्ध पड़े हुए एक युवक को लात मार कर कहा– क्यों रे गुलाम! मंजूर करता है– चाबुक मंगाऊं?

युवक ने पैरों में सिर देकर कहा– सरकार माई-बाप हैं, चाहे बोटी काट डालिए, पर अन्नदाता! यह कुकर्म मुझसे नहीं होगा।

“कुकर्म! अरे हरामज़ादे, कमीने कुकर्म कहता है! दो सौ रुपए तो ब्याह में नकद दिए, सौ अब गौने में दिए! किसलिए? गांव की बड़े-बड़े घरों की बहुएं गौना होकर पहले यहां डोक देती हैं, तू ऐसा नवाबजादा बन गया है।” इतना कह कर ठाकुर साहब ने एक लात युवक को जमा दी।

युवक ने गर्दन ऊंची करके, जरा करारे, लेकिन वेदना भरे स्वर में कहा– सरकार चाहे जान ले लें, पर जीते जी यह होने का नहीं। आबरू गरीब-अमीर सभी की है! आबरू के सामने जान क्या चीज़ है।

ठाकुर ने गंभीर गर्जन से पुकारा, ‘भूरासिह!’

एक लठबंद गुंडा कमरे में आ हाज़िर हुआ। ठाकुर ने तत्काल आदेश दिया– दे साले को गोला-लाठी दे! देखते-देखते युवक के ऊपर गोला-लाठी चला दी गई।

ठाकुर ने कहा– कमीने कुत्ते! तेरे सामने ही उस लुच्ची को नंगी करके बेआबरू करूंगा! भूरासिंह! उठा तो ला रे सुसरी को!

युवक की आंखें जलने लगीं। उसने तड़प कर कहा– “मालिक! तुम्हारा नमक तो खाया है, पर यह याद रखना कि मुझे बानिया-बामन न समझना, यदि मेरी इज्जत पर हरफ आया, तो मैं खून पी जाऊंगा। इसे याद रखना। मुझे मारते-मारते आप चाहे टुकड़े कर दें, सब सह लूंगा, पर मेरी औरत पर जो हाथ लगा देगा, उसी को जान से मार डालूंगा चाहे पीछे फांसी ही लग जाय। मुझे सेठ लोगों की तरह अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है!” इतना कह कर युवक ने इतने ज़ोर से अपना होंठ काट डाला कि खून निकल आया।

ठाकुर युवक के भाषण से क्षण भर के लिए सहम गया। इसके बाद उसने खूंटी से चाबुक लेकर युवक की खाल उधेड़नी शुरू की। एक भयानक आर्तनाद से दिशाएं कांपने लगीं। नर-पिशाच ठाकुर ने जब तक युवक बेहोश होकर न गिर पड़ा-अपनी मार बराबर जारी रक्खी।

इसके बाद उसने भेड़िए की तरह गुर्रा कर कहा– “भूरासिंह। उठा ला उस बद्‌जात को, देखें कौन उसे मेरे हाथों से बचाता है!” साक्षात् प्रेत-दूत की तरह भूरासिंह उधर को लपका।

रात्रि के गहन अंधकार को भेद कर, दीए के धुंधले प्रकाश में बढ़ते हुए नर-पिशाच भूरासिंह को लठ लिए भीतर घूसता देख कर वृद्धा नाइन और उसकी नवागता वधू के प्राण सूख गए। बेचारी सुबह से दोनों भूखी बैठी थीं – अन्न का दाना भी उनके कंठ से उतरा न था। प्रातःकाल ही से उसके लड़के को डयोढ़ि में बुला लिया गया था, और वह अब तक लौटा न था। उस पर क्या बीती होगी – इसकी दोनों असहाय नारियां भांति-भांति कल्पना कर रही थीं। नव-वधू का गौना होकर कल ही आया था पति के उसने अच्छी तरह दर्शन भी नहीं किए थे। फिर भी वह अपढ़, देहाती, अबोध बालिका हृदय की धड़कन को रोक कर क्षण-क्षण पति की प्रतीक्षा कर रही थी। वृद्धा की बात तो कही क्या जाय, जिसने बीस वर्ष से उसी को देख कर गरीबी और बुढ़ापा काटा था। भूरासिंह को देख कर दोनों सकते की हालत में हो गई। उसने घुसते ही कहा– “बहू ड्योढ़ियों में जायगी!” वृद्धा पर वज्रपात हुआ। उसने लपक कर बहू को छाती में छिपा लिया। जिस अनुनय और करुणा की दृष्टि से उसने वज्र-पुरुष भूरासिंह को देखा, उससे पत्थर भी पानी हो जाता; पर उसने अपने बलिष्ट बाहुओं से बालिका को खींच कर उठा लिया। उसी क्षण कदाचित् बालिका मूर्च्छित हो गई और एक शब्द भी उसके मुख से न निकला। वृद्धा पीछे दौड़ी, पर एक लात खाकर वह वहीं ढेर हो गई। भूत भूरासिंह अभागिनी, अरक्षिता बालिका को लेकर उसी अंधकार में विलीन हो गया। पृथ्वी पर कौन उसका रक्षक था? लोग कहते हैं, परमेश्वर सबकी रक्षा करते हैं, पर इन नरपिशाचों की नित्य की करतूतों को न जाने क्यों परमेश्वर हाथ पर हाथ धरे बैठा देखा करता है!!!

रात के ग्यारह बज गए थे। अभागिनी बालिका उस अंधेरे और सुनसान कमरे में धरती पर अत्यंत उदास बैठी थी, जिसमें वह कैद की गई थी। उस अधेड़ औरत के सिवा जो उसे दिन में दो बार खाना दे जाती थी, तीसरे व्यक्ति की सूरत उसे तीन दिन से देखना नहीं नसीब हुआ था। हर बार अच्छे खाने उसके लिए वह रख जाती थी, और फिर उठा ले जाती थी। बालिका इतनी भयभीत थी कि उसने न खाना छूआ और न पानी पिया, एक प्रकार से वह अधमरी पड़ी थी। वह रह-रह कर चीख पड़ती थी।

ऐसे कमरे में बंद होने का ख़्याल ही अत्यंत भंयकर है। वह कमरा मानो इन अभागिनी स्त्रियों को जिंदा कब्र में गाड़ देने-दुनिया से एकदम किनारे ले जाने के लिए बनाया गया था। वहां न किसी के चीखने-चिल्लाने की और न किसी अन्य प्रकार के बचाव की गुंजाइश थी।

मनुष्य कामासक्त होकर कैसी बुराइयां कर बैठता है; लालसा कैसा खेल खिलाती है; और वासना कैसे-कैसे पागलपन के काम करा बैठती है-यह बात बहुत कम लोग जानते हैं।

धीरे-धीरे बालिका ने अपनी परिस्थिति पर विचार करना शुरू किया। वह कभी ज़ार-बेज़ार रोने लगती, कभी सोच-विचार और चिंताओं से अधीर हो जाती। कभी वह साहस बटोर भागने की जुगत सोचती। परंतु व्याघ्र के मुख में फंसी हुई हिरणी के लिए यह कहां तक संभव था। फिर भी वह साहस करके उठी, उसने अपने बिखरे हुए कपड़े संभाले और वह चारों ओर कमरे में चक्कर काटने लगी। उसने एक बार खूब ज़ोर से चिल्ला कर देख लिया।

एकाएक पद-ध्वनि सुन कर उसने चौंक कर पीछे को देखा-साक्षात् पिशाच-रूप ठाकुर खड़ा था। उसने दोनों हाथ फैला कर आगे बढ़ते हुए कहा– “आ-आ प्यारी कबूतरी…।” बालिका अतिशय भयभीत होकर इस तरह भीतर को भागी कि दीवार में टक्कर खाकर गिर पड़ी – रक्त की धार बह चली। वह मूर्च्छित-सी हो बाई और उसका सिर चकराने लगा। उस यमपुरी जैसे अंधेरे कमरे में एक विशालकाय पिशाच को देखकर वह धरती से चिपट गई। कामांध पुरुष ने अपने वज्र-हाथों से उसे अनायास ही उठा लिया। उस कुमारी-समान, नव-वधू, मूर्च्छिता और रक्त में लथपथ असहाय अबला की उसने निशंक होकर पत लूट ली और उसे वहीं धरती में मूर्च्छित छोड़, चला आया। (देखें, ठकुरानी, आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री (1929), चांद : नवंबर, 89 से 90 तक)

आचार्य चतुरसेन शास्त्री जिस दौर में अपनी कहानी में उत्तर भारत के सांमतों के नैतिक पतन की पटकथा लिख रहे थे, उसी समय प्रेमचंद अपनी कफ़न कहानी में जमींदार को दयालु बता रहे थे। डॉ. धर्मवीर को प्रेमचंद से यही तो अपेक्षा थी कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री की तरह वह भी ‘कफ़न’ कहानी में जमींदार के नैतिक पतन की कहानी लिखते और ‘कफ़न’ कहानी का सारा सच पाठकों के सामने रख देते। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी पढ़कर हिंदी के आलोचक बताएं कि जिस नववधू स्त्री का ठाकुर ने बलात्कार किया है? उसके पेट में किसका बच्चा होगा?

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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