भारत के शैक्षणिक क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के लोगों का शोषण, उत्पीड़न और असमानता एक जटिल और गंभीर मुद्दा है, जो न केवल अकादमिक संस्थानों के भीतर बल्कि समाज के विभिन्न स्तरों पर भी गहराई से व्याप्त है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, बौद्धिक भ्रष्टाचार और आदिवासियों के प्रति भेदभाव के कई रूप साफ तौर से दिखाई देते हैं। ये चुनौतियां केवल किसी एक क्षेत्र में सीमित नहीं हैं, बल्कि प्रवेश प्रक्रिया, छात्रवृत्ति, पाठ्यक्रम, रोजगार, और शोध तक विस्तारित हैं।
आदिवासी शोधार्थियों को अक्सर अपनी पसंद के विषयों पर शोध करने से रोका जाता है और उन्हें ऐसे विषयों को लेने के लिए मजबूर किया जाता है, जिनका उनके जीवन और अनुभवों से कोई सीधा संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, ‘भोजपुरी लोकगीतों में आदिवासी चेतना’, ‘रीतिकाल में आदिवासी संस्कृति’, ‘निराला के प्रकृति चित्रण में आदिवासी सौंदर्य’ आदि। ये विषय न केवल आदिवासी शोधार्थियों की रुचि के विपरीत होते हैं, बल्कि उन्हें एक ऐसे ढांचे में ढालने का प्रयास करते हैं जो उनकी पहचान और अनुभवों को नकारता है।
इस तरह के विषयों को थोपा जाना, आदिवासी शोधार्थियों का बौद्धिक उत्पीड़न करना है। उन्हें न केवल एक ऐसे विषय पर शोध करना होता है, जिसके बारे में वे नहीं जानते हैं, बल्कि उन्हें यह भी दिखाना होता है कि वे एक ऐसे ढांचे में कैसे फिट हो सकते हैं जो उनके लिए बनाया नहीं गया है। इससे न केवल उनका आत्मविश्वास कम होता है, बल्कि वे अपनी शोध क्षमता को भी पूरी तरह से विकसित नहीं कर पाते हैं।
उच्च शिक्षा में यह आदिवासी उत्पीड़न का एक अनोखा हथियार हैं। इस हथियार का उपयोग अकादमिक क्षेत्र में कुंडली मारे वर्चस्ववादी तबका बहुत ही सफाई के साथ करता है। लक्ष्य होता है आदिवासी शोधार्थियों को पीएचडी करने से रोकना, अकादमिक क्षेत्र को करियर बनाने में बाधा पैदा करना और उनमें कमतर होने की हीनता का बोध भरना।
इस पूरे प्रकरण में सामाजिक विज्ञान के आचार्यों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अक्सर देखा जाता है कि सामाजिक विज्ञान के आचार्य ही ऐसे विषयों को थोपते हैं जो आदिवासी शोधार्थियों के लिए प्रासंगिक नहीं होते हैं। वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए आदिवासी शोधार्थियों को अपने विचारों को स्वीकार करने के लिए मजबूर करते हैं। आदिवासी शोधार्थी जब अपनी पसंद के विषयों पर शोध स्वीकृति या उचित मार्गदर्शन हासिल नहीं कर पाते हैं, तो वे अक्सर निराश हो जाते हैं और शोध कार्य का ख्याल छोड़ देते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि गाइड सिर्फ आदिवासी विषय के कारण शोधार्थियों को दो-दो तीन-तीन साल तक यूं ही दौड़ाते रहते हैं, शोध प्रारूप को फाइनल नहीं होने देते हैं।
आदिवासी शोध के इच्छुक और नए शोधार्थियों से इस संबंध में देशभर से इस तरह के उत्पीड़न का किस्सा सुनने को मिलता रहा है। एक महिला आदिवासी शोधार्थी ने बताया कि पहले तो उसे मनपसंद विषय नहीं दिया गया और जब विषय स्वीकृत हो गया तो तीन साल से ज्यादा समय तक गाइड उसे परेशान करते रहे। थक हार कर उस आदिवासी महिला ने दूसरा गाइड लिया। एक छात्र ने बताया कि उसके गाइड ने ऐसे अध्याय तय कर दिये हैं, जिसमें उसे रीतिकाल में आदिवासी गद्य खोजना है। एक नौजवान चार साल लगातार पीएचडी प्रवेश के मौखिक साक्षात्कार में इसलिए फेल कर दिया जाता रहा, क्योंकि उसका विषय भारतीय वाङ्मय में आर्य हिंसा का स्वरूप था।
चाहे शोध विषय का सवाल हो या प्राध्यापकीय नौकरी पाने का, वायवा में अक्सर संदर्भ रहित और बेतुके सवाल पूछे जाते हैं। एक आदिवासी लड़की जिसने हिंदी विभाग के आचार्यों से काफी प्रतिरोध के बाद मनपसंद विषय में पीएचडी हासिल की थी, उससे वायवा में अक्सर ऐसे सवाल किए जाते– “आप कितने भोजपुरी लोकगीत जानती हैं?” एक लड़की से कहा गया कि नाच कर बताइए कि आप सचमुच में आदिवासी हैं। वायवा से सहमे एक आदिवासी लड़के को कहा– “यहां तो बोल नहीं पा रहे हो, क्लास में कैसे पढ़ाओगे?”
विभिन्न विश्वविद्यालयों में पिछले दो दशकों में प्राध्यापक बने आदिवासियों का अनुभव भी कम भयानक नहीं है। वे बताते हैं कि कैसे आदिवासी विषय की मेनस्ट्रीमिंग की जाती है और गैर-आदिवासी लेखकों के लेखन के बोझ तले आदिवासी विषय की आत्मा को दबा दिया जाता है। कोरम पूरा करने के लिए आदिवासी रचनाकारों की एक-एक कविता, कहानी या उपन्यास का अंश रखकर समूचा पाठ्यक्रम गैर-आदिवासी पुस्तकों से सजा दिया जाता है।
अफसोस की बात है कि ऐसे प्रयासों में कुछ अवर्ण प्राध्यापकों की भागीदारी सवर्ण गुरुजनों से अक्सर ज्यादा होती है। उदाहरण के लिए आप ‘दलित-आदिवासी’ अध्ययन पीठों को ले सकते हैं, जिसमें आदिवासियों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। उनके पाठ्यक्रमों और पीठ द्वारा आयोजित सभा-सेमिनारों में भी नाम के लिए एकाध आदिवासी बुद्धिजीवियों या अकादमिकों को ‘उदारतापूर्वक’ ले लिया जाता है।
अभी यह भी ट्रेंड है कि कई आदिवासियों की एक-एक रचना लेकर कोई आचार्य अपनी आर्य विद्वता वाली भूमिका के साथ संग्रह तैयार करता है और प्रकाशक से सांठगांठ कर उसे पाठ्यक्रम समिति से पास करवा लेता है। जबकि संग्रह भौतिक रूप से प्रकाशित नहीं हुआ होता है। इस तरह से भी मूल आदिवासी लेखकों की पुस्तकों को अकादमिक परिधि में आने से बाधित करने का खेल धड़ल्ले से जारी है।
वास्तविक आदिवासी नॅरेटिव, विमर्श, शोध और शोधार्थियों के शोषण के इस दुष्चक्र के कई गंभीर परिणाम हैं। सबसे पहले, यह आदिवासी समुदाय के ज्ञान और अनुभवों को नष्ट करता है। जब आदिवासी शोधार्थी अपनी पसंद के विषयों पर शोध नहीं कर पाते हैं, समुचित शोध मागदर्शन और प्रोत्साहन से वंचित कर दिए जाते हैं, तो वे अपने पसंदीदा विषय, समुदाय के ज्ञान और अनुभवों को एक वैज्ञानिक ढांचे में प्रस्तुत करने में पिछड़ जाते हैं। इस नस्लीय और वर्चस्ववादी उत्पीड़न से न केवल आदिवासी समाज बल्कि देश और संपूर्ण विश्व की ज्ञान परंपरा उस बौद्धिक संपदा से वंचित हो जाती है जिसे समता, सतत विकास, पर्यावरणीय संतुलन और शांति के लिए सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान माना जा रहा है।
दूसरे, यह आदिवासी समुदाय के युवाओं को उच्च शिक्षा से दूर रखता है। जब आदिवासी युवाओं को लगता है कि उच्च शिक्षा में उनके लिए कोई जगह नहीं है, तो वे उच्च शिक्षा और शोध छोड़ देते हैं और अन्य कामों में लग जाते हैं। सिर्फ शिक्षार्थी ही नहीं, ऐसे भी उदाहरण हैं जब परेशान होकर आदिवासी प्राध्यापक ने विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ दी है या फिर किसी और कॉलेज या विश्वविद्यालय में चले जाने पर मजबूर हो गए हैं।
तीसरे, यह समाज में असमानता को बढ़ावा देता है। जब आदिवासी समुदाय के लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करने और अकादमिक करियर को अपनाने से रोके जाते हैं, तो वे देश के मुख्य रंगमंच से बाहर रह जाते हैं और उन्हें कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी क्षति देश को होती है क्योंकि वह आदिवासी ज्ञान परंपरा, बौद्धिक संपदा और उन मौलिक विचार प्रणालियों व व्यवहारों से वंचित हो जाता है जो उसकी मानसिक और भैतिक एकरसता को तोड़ती है, उसे निरंग और बहुसांस्कृतिक बनाती है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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