उत्तर प्रदेश के संभल और राजस्थान के अजमेर में हिंदुत्व का पुराना खेल एक बार फिर खेला जा रहा है। पिछले चार दशकों में इस खेल में महारत हासिल कर ली गई है। इस खेल के विभिन्न चरण एकदम सीधे और साफ़ हैं – कोई भी मस्जिद या दरगाह चुन लो; यह दावा करो कि सदियों पहले उस मस्जिद या दरगाह को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था; अपनी संस्थागत और सांगठनिक ताकत का उपयोग करते हुए इस मुद्दे पर जनमत का निर्माण करो; हिंसा करो – मगर बहुत ज्यादा नहीं – कुछ लोगों की मौत और संपत्ति का कुछ नुकसान काफी है; किसी अदालत में जाओ और अपने पक्ष में फैसला हासिल कर लो; और फिर भरपूर राजनीतिक लाभ कमाओ। मगर यहीं रुकना नहीं है। एक नई मस्जिद या दरगाह की तलाश शुरू कर दो। और यह क्रम चलता जाएगा। ‘मस्जिद गिराओ, मंदिर बनाओ’ की ब्राह्मण-सवर्ण परियोजना की शानदार सफलता के बाद यह अपेक्षित ही था।
सैयद-अशराफ द्वारा पिछले 40 सालों से हिंसा का सामना करते रहने के बाद भी कोई प्रणालीगत या संरचनात्मक लोकतांत्रिक बदलाव न किया जाना, इस प्रक्रिया के दोहराव की गारंटी की तरह था। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि सारा दोष केवल सैयद-अशराफ पर क्यों लादा जाना चाहिए? क्या इसमें पसमांदा की कोई भूमिका नहीं है? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत सरल और साफ़ है। सैयद-अशराफ वह सब करते आ रहे हैं, जिससे अन्य मुसलमानों के लोकतांत्रिक राजनीति में प्रवेश की संभावना तक को योजनाबद्ध ढंग से समाप्त किया जा सके। आप पूछेंगे कैसे?
शुरुआत हम लोकतांत्रिक राजनीति से करते हैं। लोकतंत्र में सत्ता हासिल करने की प्रक्रिया सुनिर्धारित है। कोई भी व्यक्ति जनता की बहुसंख्या को उस सरोकार या विचार, जिसमें वह आस्था रखता है, के पक्ष में गोलबंद कर विधिक और संस्थागत चैनलों की मदद से सत्ता हासिल कर सकता है। पराजित अल्पसंख्यक समूह को निश्चित अंतराल पर यह मौका मिलता है कि वह जनता की बहुसंख्या को अपने पक्ष में कर सत्ताधारियों को पदच्युत कर सके। स्पष्टतः इस व्यवस्था में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति या समूह, बहुसंख्यक लोगों को अपने पक्ष में कर पाता या नहीं। अब, अपने पक्ष में बहुमत का निर्माण करने के लिए कोई निर्धारित सिद्धांत या मुद्दे नहीं हैं। आप बहुमत को बेहतर सार्वजनिक स्कूलों, अस्पतालों या अन्य लोक-सेवाओं के निर्माण के पक्ष में गोलबंद कर सकते हैं। और आप उतनी ही आसानी से अन्य लोगों की जान लेने या उनकी संपत्ति को नष्ट करने – फिर चाहे इसके लिए हथियारों का प्रयोग क्यों न करने पड़े – के पक्ष में भी बहुमत को गोलबंद कर सकते हैं। यह बात किसी भी क्रियाशील चुनावी लोकतंत्र के लिए सही है और यह सामाजिक जीवन में कुछ हद तक अस्पष्टता का कारक बन जाती है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली समूह इस अस्पष्टता का उपयोग, बहुमत जुटा कर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए करते हैं। चूंकि, अपने पक्ष में बहुमत जुटाने के लिए कौशल और संसाधनों की ज़रूरत होती है, इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था के लागू होने के शुरुआती दौर में पारंपरिक रूप से शक्तिशाली सामाजिक वर्ग इस पर हावी रहते हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि ब्रिटिश भारत में प्रतिनिधिक लोकतंत्र की शुरुआत में इसमें ब्राह्मण-सवर्ण और सैयद-अशराफ वर्गों का बोलबाला रहा। मगर जहां ब्राह्मण-सवर्ण गंठजोड़ ने हिंदुत्व सहित विभिन्न राजनीतिक परियोजनाओं के जरिए और अलग-अलग रणनीतियां अपनाकर बहुसंख्यकों को गोलबंद करने के लिए प्रयास किये, वहीं अलग-अलग मौकों पर सैयद-अशराफ गठबंधन ने केवल एक धार्मिक अल्पसंख्यक समूह को गोलबंद किया। बंटवारे की भयावह विभीषिका और हिंसा के बाद भी सैयद-अशराफ इसी अलोकतांत्रिक राह पर चलते रहे।
वे कौन-से विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आचरण और व्यवहार हैं, जिन्हें सैयद-अशराफ संरक्षित रखे हुए हैं, जो जीवन जीने के अलोकतांत्रिक तरीकों के पोषक हैं और जो हिंदुत्ववादियों के मार्ग को सुगम बना रहे हैं? विस्तार में जाए बिना, हम उनमें निम्न को शामिल कर सकते हैं–
1. अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं – चाहे वे मदरसे हों या आधुनिक किस्म के संस्थान – की प्रकृति ऐसी है, जिससे वे बहुजन विद्यार्थियों के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे से अलग करने वाली दीवारों का निर्माण करते हैं;
2. मुस्लिम पर्सनल लॉ यह सुनिश्चित करता है कि विभिन्न धर्मों के बहुजन एक-दूसरे के साथ पारिवारिक रिश्ते नहीं बना सकें;
3. धार्मिक संस्थाएं इस प्रकार काम करती हैं कि विभिन्न बहुजन समुदायों के बीच संवाद नहीं हो पाता;
4. धार्मिक राजनीतिक दल निरतंर इस तरह की धर्म-आधारित भाषा का प्रयोग करते हैं और ऐसी छवियों का निर्माण करते हैं, जिनसे यह धारणा मज़बूत होती है कि हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे से अलग और एक-दूसरे के विरोधी हैं;
5. उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रस्तुत करने से सामाजिक अलगाव और मज़बूत होता है;
6. सैयद-अशराफ तीन आधारों – जाति, धर्म और लिंग – के आधार पर स्वयं की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं। इससे बहुजन और ब्राह्मण-सवर्ण दोनों में कई तरह की चिंताएं उपजती हैं।
इन सभी अलोकतांत्रिक आचरणों को ‘अशराफगिरी’ कहा जा सकता है। इसी अशराफगिरी कथा के नतीजे में मुसलमानों और उनसे जुड़ी सभी चीज़ों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अलगाव का सामना करता पड़ता है। इसी अशराफगिरी के चलते सैयद-अशराफ कभी राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक बहुमत जुटाने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं करते। और अगर वे ऐसा कोई प्रयास करें भी तो अशराफगिरी के कारण समाज में व्याप्त अलगाव का भाव उसे सफल नहीं होने देगा।
मगर अशराफगिरी, ब्राह्मण-सवर्ण गठबंधन के लिए बहुत उपयोगी है। वह राजनीतिक बहुमत जुटाने में उनकी मदद करती है। ब्राह्मण-सवर्ण को लोकतंत्र में अपनी राह सुगम बनाने के लिए अशराफगिरी की ज़रूरत क्यों है?
सन् 1980 के दशक में कई दलित, पिछड़े और आदिवासी बहुजन समूहों को लगा कि वे इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि वे अपने बल पर बहुमत जुटा कर सत्ता पर दावा कर सकते हैं। इससे ब्राह्मण-सवर्ण का सत्ता पर एकाधिकार खतरे में आ गया, क्योंकि संख्या बल में वे कमज़ोर थे और जाति-विरोधी लोकतांत्रिकरण के चलते, धर्मनिरपेक्षता की सीमाएं भी थीं। बहुमत जुटाने के लिए उन्हें एक वैकल्पिक रणनीति की ज़रूरत थी। यहां अशराफगिरी उनके काम आई, जो एक अपरिवर्तनीय अल्पसंख्यक समूह की बात करती थी। उसके आधार पर हिंदुत्व अपने लिए एक नया मैन्युअल विकसित कर सकता था, जिससे स्थाई तौर पर भगवाधारी बहुमत हासिल किया जा सके। इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण ने पूरे जोशो-खरोश से हिंदुत्व की विचारधारा को गले लगा लिया, अपना मैन्युअल नए सिरे से लिखा और मुस्लिम-विरोधी वातावरण तैयार करने का निश्चय किया। मुस्लिम-विरोधी क्यों? दलित-विरोधी, पिछड़ा-विरोधी या आदिवासी-विरोधी क्यों नहीं? इसका कारण बहुत साफ़ था। ये समूह पहले से बहुमत जुटाने का प्रयास कर रहे थे और उन पर प्रत्यक्ष हमले का उल्टा असर हो सकता था। इससे वे एक-दूसरे के और करीब आकर, एक बहुजन बहुमत का निर्माण कर सकते थे।
मुस्लिम-विरोध के मामले में ऐसा कोई खतरा नहीं था, क्योंकि सैयद-अशराफ के कारण मुसलमानों का लंबे समय से यह रिकॉर्ड रहा था कि उनके साथ चाहे कितना ही क्रूर व्यवहार हुआ हो, उन्होंने कभी प्रभावी लोकतांत्रिक राजनीति नहीं की। इसके अलावा, बंटवारे के पहले अशराफों और सवर्णों के बीच हुए हिंसक टकरावों की यादों के जख्म कुरेद कर मुस्लिम-विरोधी वातावरण को और गहरा किया जा सकता था। शाहबानो फैसले के खिलाफ अशराफों का आंदोलन, एक गैर-लोकतांत्रिक मुस्लिम पक्ष की मौजूदगी का पर्याप्त सुबूत था। चतुर हिंदुत्व रणनीतिकारों ने संगठित हिंसा के ज़रिए इस पक्ष को अपना हथियार बना लिया। यह साफ़ है कि ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग ने हिंसक हिंदुत्व विचारधारा को इसलिए अपनाया, क्योंकि एक ओर भारत के समाज का तेजी से लोकतांत्रिकरण हो रहा था तो दूसरी ओर, अशराफगिरी उन्हें उपलब्ध थी, जो किसी भी तरह के बदलाव के लिए राजी नहीं थी।
ऐसे में, हिंदुत्ववादी ताकतों के खेला से कैसे निपटा जा सकता है? इसका रास्ता है अधिक लोकतांत्रिकरण, जिसका आशय है– दलित, पिछड़ा, अति-पिछड़ा, आदिवासी और पसमांदा वर्गों को एक कर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए बहुजन बहुमत का निर्माण। चूंकि हिंदुत्व, अशराफगिरी से शक्ति ग्रहण करता है, इसलिए क्या अशराफगिरी का अंत किए बिना, हिंदुत्व के खेला का अंत किया जाना संभव है? यह उतना कठिन नहीं है, जितना लगता है। इसके लिए, अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं में बदलाव लाकर उनकी जगह एक समान शिक्षा प्रणाली लागू की जानी होगी। मुस्लिम पर्सनल लॉ की जगह सभी पर लागू पारिवारिक कानून बनाने होंगे, धार्मिक राजनीतिक दलों और केवल एक धर्म की संस्थाओं को समाप्त करना होगा, भाषाओं का धर्म से जुड़ाव ख़त्म करना होगा और सैयद-अशराफ के श्रेष्ठ होने के दावों को उसी तरह चुनौती दी जानी होगी, जिस तरह बहुजन ब्राह्मण-सवर्ण श्रेष्ठतावाद को चुनौती दे रहे हैं। फासीवाद के कदम तभी आगे बढ़ते हैं जब लोकतंत्र के घेरे के विस्तार की प्रक्रिया रूक जाती है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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