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सबसे पहले ऐसे तैयार हुई अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूची

यह कहानी तब से शुरू हुई जब भारत में वर्ष 1872 में ब्रिटिश काल के दौरान जनगणना की शुरुआत हुई। हालांकि पूर्ण जनगणना का प्रारंभ वर्ष 1881 में हुआ। उस समय जनगणना के दौरान ब्राह्मणों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को छोड़कर जनगणना में किसी को भी हिंदू ना लिखा जाए, यह कहा था। बता रहे हैं संजीव खुदशाह

आज भी यह विषय लोगों के लिए जिज्ञासा की वजह बनी हुई है कि एससी-एसटी की सूची का निर्माण कैसे हुआ। बहुत सारे लोगों को यह नहीं मालूम है कि इन सूचियों के निर्माण करने में कौन-कौन से कारक जिम्मेदार थे।

यह कहानी तब से शुरू हुई जब भारत में वर्ष 1872 में ब्रिटिश काल के दौरान जनगणना की शुरुआत हुई। हालांकि पूर्ण जनगणना का प्रारंभ वर्ष 1881 में हुआ। उस समय जनगणना के दौरान ब्राह्मणों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को छोड़कर जनगणना में किसी को भी हिंदू ना लिखा जाए, यह कहा था।

अपनी किताब ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ में मुद्राराक्षस लिखते हैं–

“यह देखा जाना चाहिए था कि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना हो जाने के बाद जब जनगणना शुरू हुई तो अंग्रेज अधिकारी ने ईसाई और मुसलमान को छोड़कर सारे ही भारतीयों को (ब्राह्मण सहित आदिवासी, कामगार, शिल्पी, शासक) हिंदू लिखना चाहा। उस वक्त सारे ही ब्राह्मणों ने प्रतिवाद किया था कि जनगणना में सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही हिंदू लिखवाए। बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रिटिश सरकार के कारण भारत में भी लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व देने की प्रक्रिया शुरू हुई। …

“भारतीय इतिहास की यह एक महत्वपूर्ण घटना है। संस्‍कृति के इतिहास में यह मामूली-सा दिखने वाला हेर-फेर इस देश की ऐतिहासिक वास्तविकता को ध्‍वस्‍त करने में कामयाब हो गया।”[1] इसका व्यापक असर पड़ा। यहीं से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की सूच‍ी बनने की शुरुआत हुई।

डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘अछूत कौन थे’ में लिखते हैं–

“1870 से आगे प्रति दस वर्ष पर जनगणना कमिश्नर द्वारा जनगणना की जो रिपोर्ट प्रकाशित होती आ रही है, उसमें भारत के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन के बारे में अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध न होने वाली अमूल्य जानकारी पाई जाती है। सन् 1910 से पहले जनगणना कमिश्नर द्वारा जनसंख्या का लेखा-जोखा धर्मानुसार होता था। इस जनसंख्या रिपोर्ट[2] में पुरानी परंपरा को छोड़कर नई बात अपनायी गई। पहली बार मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई को छोड़कर शेष भारतीय को, जिन्हे पूर्व में हिंदू मानकर गणना की जाती थी, को तीन भिन्न वर्गों में बांटा गया। 1. हिंदू, 2. प्रकृति पूजक आदिवासी, 3. अछूत।”[3]

प्रश्न यह है कि ऐसी कौन-सी मजबूरी जनगणना कमिश्नर के समक्ष थी कि उन्हे शेष भारतीयों को तीन विभिन्न वर्गों में बांट कर जनगणना करवानी पड़ी?

इस प्रश्न का जवाब उस मानपत्र का अध्ययन करने पर मिलता है जिसे 1906 में मुसलमानों ने आगा खान के नेतृत्व में उस समय के वायसराय लार्ड मिंटो को प्रस्तुत किया। इस मान-पत्र में मुसलमानों ने अपने लिए विधान मंडलों, कार्यकारिणी तथा सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की मांग की थी।

इसमें आगा खान ने तर्क दिया कि “1901 में की गई जनगणना के आधार पर मुसलमान 6 करोड़ 20 लाख से ज्यादा हैं। अर्थात भारतीय जनता का लगभग चौथा हिस्सा है। यदि प्रकृति-पूजकों तथा दूसरे छोटे धर्मावलंबियों के लेखे में आने वाली असभ्य जातियों के लोग वास्तव में हिंदू न होने पर भी ‘हिंदू’ गिने जाते हैं, उन्हें बाहर कर दिया जाए, तो हिंदुओं की संख्या की तुलना में मुसलमानों का अनुपात बहुत बढ़ जाएगा। इसलिए हम यह निवेदन करना उचित समझते हैं कि प्रतिनिधित्व की किसी भी विस्तृत अथवा संकुचित पद्धति में एक ऐसी जाति (जिसकी जनसंख्या रूस को छोड़कर किसी भी प्रथम दर्जे की योरोपीय शक्ति की जनसंख्या से अधिक है) उचित तौर पर यह मांग कर सकती है कि उसे राज्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो।”[4]

अर्थात आगा खान ने इस मान-पत्र में इस बात पर जोर दिया कि जनगणना में शेष परंपरागत भारतीयों को हिंदू गिना जाता है, जो उचित नहीं है।

नाले की सफाई करते सफाईकर्मी मजदूर

गौरतलब है कि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद जनगणना के दौरान ईसाई तथा मुसलमान को छोड़कर सारे ही भारतीयों को हिंदू लिखे जाने का ब्राह्मणों ने प्रतिवाद किया कि जनगणना में सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ही हिंदू लिखवाए।[5]

ब्राह्मणों तथा मुसलमानों के इस आग्रह के परिणाम स्वरूप जनगणना कमिश्नर ने वर्गीकरण की नई पद्धति जारी की, जिसमें मुस्लिम, इसाई तथा हिंदू – 1. जो शत-प्रतिशत हिंदू हैं व 2. जो शत-प्रतिशत हिंदू नहीं – की अलग-अलग गिनती की गई।

जो शत-प्रतिशत हिंदू नहीं हैं, को हिंदुओं से अलग गिनने हेतु उनकी पहचान के लिए कमिश्नर ने विशेष कसौटियां (प्रश्न) निर्धारित की। ये कसौटियां जनगणना कर्मचारियों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की सूची के निर्धारण में निर्णायक रूप से सहायक थीं। इन दस कसौटीइयों के अधार पर जनगणना कर्मी प्रश्न पूछते और उस हिसाब से तय करते थे कि कौन किस वर्ग में आएगा। ये कसौटियां निम्न प्रकार थीं–

  1. जो ब्राह्मण की प्रधानता नहीं मानते।
  2. जो किसी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी माने हुए हिंदू गुरु से मंत्र नहीं लेते।
  3. जो वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते।
  4. जो हिंदू-देवताओं को नहीं पूजते।
  5. जिनका पौरोहित्य अच्छे ब्राह्मण नहीं करते।
  6. जो कोई ब्राह्मण पुरोहित नहीं रखते।
  7. जो हिंदू मंदिर के भीतर नहीं जा सकते।
  8. जो अछूत हैं अथवा निर्धारित सीमा के भीतर आ जाने से अपवित्रता का कारण माने जाते हैं।
  9. जो अपने मुर्दों को गाड़ते हैं।
  10. जो गोमांस खाते हैं और गौ का किसी प्रकार से आदर नहीं करते।[6]

ये तमाम कसौटियां ऐसी हैं, जो हिंदुओं से अछूतों तथा आदिवासियों को पृथक करती हैं। इस प्रकार इन्ही आधारों पर जनगणना कराई गई। तत्पश्चात जातियों की जो सूची तैयार हुई, वही अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति सूची कहलाई।

वर्ष 1911 की इस जनगणना के बाद हिंदुओं की संख्या अल्पसंख्यक हो गई। फिर जब लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया शुरू हुई तब जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व की बात होने लगी तब पहली बार सवर्ण नेताओं ने अंग्रेज सरकार पर दबाव डाला कि सभी पिछड़े और आदिवासी हिंदू लिखे जाएं। बाद की जनगणना में सभी हिंदू लिखे जाने लगे।

उपरोक्त कसौटि‍यों से पता चलता है कि कौन लोग इसमें से अछूत होंगे और कौन आदिवासी होंगे। कसौटी क्रमांक 2, 5, 6, 7, 8 और 10 अछूतों को निर्धारित करती है तथा कसौटी क्रमांक 1, 3, 4, 6 और 9 आदिवासियों को निर्धारित करती है। कुछ प्रश्न दोनों के लिए एक जैसे हैं।

उस समय की जनगणना में इन्हीं प्रश्नावली के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का निर्धारण किया गया था। लेकिन आज अगर धार्मिक कर्मकांड संबंधी कसौटि‍यों के आधार पर निर्धारण करने की कोशिश की जाए तो बहुत कम जातियां ऐसी बचेंगीं, जिन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति माना जाएगा, क्योंकि इन जातियों ने अपनी मूल संस्‍कृति एवं अस्तित्व को मिटा दिया है। वर्ष 1950 में भारत सरकार ने जिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूचियों को अधिसूचित किया है, वह इसी प्रकार से बनाई गई सूची है।

अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि वर्तमान में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए किन मापदंडों का प्रयोग किया जाता है। इन सूचियों में समय-समय पर नई जातियों को जोड़ा व कुछ जातियों को सूची से निकाला जाता है। संविधान में इसके लिए निश्चित प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है।

अनुसूचित जाति की सूची के लिए मानदंड[7]:

सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़ापन के कारण पारंपरिक रूप से अस्पृश्यता

अनुसूचित जनजाति की सूची के लिए मानदंड[8] :

  1. आदिम लक्षण
  2. विशिष्ट संस्कृति
  3. भौगोलिक अलगाव
  4. बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में शर्म
  5. पिछड़ापन

आज के समय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूची में कौन-सी जाति को जोड़ना है और कौन-सी जाति को हटाना है, इस संबंध में कवायदें संबंधित की राजनीतिक स्थिति तय करती है। उन मापदंडों का उपयोग कम ही होता है, जो संविधान में प्रावधानित हैं। इन मापदंडों के बावजूद आज भी कई ऐसी अति पिछड़ी जातियां हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सूची में जगह दी जा सकती थी।

[1] मुद्राराक्षस, धर्मग्रथों का पुनर्पाठ, इतिहासबोध प्रकाशन, 2004, पृ. 12
[2] https://baws.in/books/baws/EN/Volume_07/pdf/330
[3] डॉ. बी.आर. आंबेडकर, अछूत कौन और कैसे, बुद्ध भूमि प्रकाशन, नागपुर, 1995, पृ. 51
[4] वही
[5]  मुद्राराक्षस, उपरोक्त
[6] डॉ. बी.आर. आंबेडकर, अछूत कौन और कैसे, बुद्ध भूमि प्रकाशन, नागपुर, 1995, पृ. 52
[7] https://pib.gov.in/newsite/PrintRelease.aspx?relid=115783
[8] https://socialjustice.gov.in/public/ckeditor/upload/11301676262859.pdf

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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