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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : ओबीसी द्वारा मराठा विरोध का वैचारिक पक्ष

तात्यासाहेब जोतीराव फुले ने समाज का ब्राह्मणी-अब्राह्मणी के रूप में ध्रुवीकरण करके शूद्रों व अतिशूद्रों को समान हित संबंध के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया। लेकिन अब्राह्मणी समाज घटकों में क्षत्रिय जमींदार जाति प्रभुत्वशाली होने के कारण उसके बदलते हित संबंधों के लिए ब्राह्मण और वैश्यों से जाकर मिल गए और उन्होंने शोषण-शासन पर आधारित समाज व्यवस्था (जाति-व्यवस्था) को और अधिक मजबूत किया। पढ़ें, श्रावण देवरे के विश्लेषण का चौथा भाग

तीसरे भाग से आगे

करीब 6 महीने पहले जब लोकसभा चुनाव हुए तब महाराष्ट्र के दलित और मुस्लिम समाज के साथ-साथ ओबीसी मतदाताओं ने भी महाविकास आघाड़ी (अखिल भारतीय स्तर पर इंडिया गठबंधन) को वोट दिया था। वजह यह थी कि उन्हें लगा था कि अगर केंद्र मे ‘इंडिया’ गठबंधन की सरकार आएगी तो जातिगत जनगणना हो सकती थी। राहुल गांधी पहली बार लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जनसभाओं में ओबीसी की बात कर रहे थे।

लेकिन 6 महीने बाद जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए तो ओबीसी-मराठा संघर्ष का मुद्दा अहम था और जरांगे की हिंसा की वजह से ओबीसी डरे हुए थे। उन्हें लग रहा था कि अगर शरद पवार के नेतृत्व में महाविकास आघाड़ी सत्ता में आएगी तो जरांगे का ओबीसी के खिलाफ हिंसाचार बढ़ जाएगा। जब किसी व्यक्ति या समाज के सामने सुरक्षा का सवाल खड़ा हो जाता है तो वह अपनी जान बचाने के लिए कुछ भी कर सकता है। और यही हुआ विधानसभा चुनाव में। लेकिन इसके वैचारिक आधार भी हैं।

असल में मानव सभ्यता का इतिहास हमें बताता है कि जब से जीव अस्तित्व में आया, तभी से जीवन को बचाना जीवित प्राणियों की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। दूसरी प्राथमिकता जीवों का प्रजनन करना रहा है। उदाहरण के लिए एककोशिकीय जीव अमीबा से लेकर आधुनिक मानव तक, प्राणियों का, जीवन को सुरक्षित एवं संरक्षित करने का संघर्ष निरंतर जारी है। खाद्य शृंखला के सदंर्भ में यह संघर्ष सहज ही रेखांकित होता है। जान लगाना, जान देना, जान लेना इन सभी क्रियाओं पर जान बचाना सब पर भारी ऐसी ही एक क्रिया है। जान बचाने की क्रिया उसके जन्म से जुड़ी होने के कारण यह लगातार एक अत्यंत क्रियाशील स्वरूप में जीव के साथ रहती है। एक व्यक्ति, जो अपने खुद को आजाद करने के लिए आत्महत्या करता है उसे कायर कहा जाता है, फिर भी एक व्यक्ति केवल अपने जीवन को असहनीय पीड़ा से स्वयं को मुक्त करने के लिए ही आत्महत्या करता है। आत्महत्या यह किसी मनुष्य के जीवन की एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे करने से पहले वह सौ बार बार सोचता है। जब जीने के सभी मार्ग बंद नजर आते हैं तभी वह आत्महत्या करने को प्रवृत्त होता है। दूसरों के लिए स्वेच्छा से जान देने को और बलिदान करने वाले को शहीद कहा जाता है, यह कृति करके वह अपनी जान देकर भी अमर हो जाता है। पेट की आग बुझाने के लिए जानलेवा संघर्ष करनेवाले जंगली जानवर से लेकर आधुनिक मानव तक के पूर्वजों की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। लेकिन अपनी जान बचाने के लिए अपने ही बच्चे के सिर पर पैर रखकर रौंदने वाली बंदरी की कथा भले ही हमें पसंद न हो, फिर भी वह सबसे अधिक विचारणीय है।

प्रदर्शन करते ओबीसी समुदायों के सदस्य

आत्महत्या करना कायरता है। बलिदान देना बहादुरी है। जान भले ही चली जाए, लेकिन अपने उसूलों से समझौता नहीं करेंगे, जैसे अनेक सिद्धांतों को आज मानव समाज में मान्यता प्राप्त है।

लेकिन जब जीव के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न खड़ा होता है तब सारे उसूल-सिद्धांत एक क्षण में किनारे कर दिए जाते हैं। असल में जिसे हम जीव कहते हैं, वह केवल हमारे शरीर में ही नहीं रहता है। वह अपने रक्त संबंधियों, वंश व समाज में भी रहता है। जब अपने समाज के अस्तित्व पर खतरा होता है तब उस समाज के नेता देश व भाषा आदि को छोड़कर समाज के अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ने को तैयार होते हैं। जिस तरह से हम जीवन बचाने के लिए प्रकृति से लड़ते हैं और फिर प्रकृति के बदलते परिवेश के अनुकूल होते रहते हैं! “सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट” (जो मजबूत है सुरक्षित है) डार्विन का यह सिद्धांत इसके अलावा अलग क्या कहता है!

जीवन बचाने यानी ‘जीवन सुरक्षा’ का यह विचार इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि भारत में, ऐसे कई सामाजिक घटक हैं जिन्हें जानबूझकर ‘असुरक्षित’ किया गया और ‘असुरक्षित मानसिकता’ पर आधारित एक संपूर्ण समाज-व्यवस्था का निर्माण किया गया। समाज का शोषक वर्ग अनेकानेक सामाजिक घटकों के जान से खेलती रहती है। परिणामस्वरूप, संबंधित हर समाज, घटक अपने स्वतंत्र स्वरूप को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते रहता है, जिसके कारण यह व्यवस्था और अधिक मजबूत होती रहती है। इसी क्रम में अस्तित्व टिकाए रखने के लिए अपने हित संबंध अधिक दृढ़ करने के लिए समान हित संबंधी समाज घटक सह-अस्तित्व में आते हैं और उनका विकास होता है।

भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था के शोषक-शासक सामाजिक घटक समान हित संबंधी होने के कारण एक होते हैं और अपनी शोषण आधारित सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करते हैं, परंतु शोषित-शासित समाज घटक समान हित संबंधों के लिए एक साथ नहीं आते, क्योंकि वे असुरक्षा के आधार पर अपने स्वयं के समाज के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए ही संघर्ष कर रहे होते हैं।

फुले-आंबेडकर ने समाज के शोषित-शासित समाज घटकों को एकजुट करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। लेकिन आज भी, प्रत्येक जाति के नेता अपनी-अपनी जाति के अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई दे रहे हैं। तात्यासाहेब जोतीराव फुले ने समाज का ब्राह्मणी-अब्राह्मणी के रूप में ध्रुवीकरण करके शूद्रों व अतिशूद्रों को समान हित संबंध के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया। लेकिन अब्राह्मणी समाज घटकों में क्षत्रिय जमींदार जाति प्रभुत्वशाली होने के कारण उसके बदलते हित संबंधों के लिए ब्राह्मण और वैश्यों से जाकर मिल गए और उन्होंने शोषण-शासन पर आधारित समाज व्यवस्था (जाति-व्यवस्था) को और अधिक मजबूत किया।

संवैधानिक व्यवस्था में देखें तो शूद्रों व अति शूद्रों की तीन श्रेणियां हैं– गांव के बाहर की संस्कृति पर आधारित अनुसूचित जाति (एससी), जंगल की संस्कृति पर आधारित अनुसूचित जनजाति (एसटी) और गांव की कृषि-संस्कृति पर आधारित अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी)।

इन तीनों श्रेणियों में कुछ जातियां ताकतवर होने के कारण उन्होंने अपनी ही श्रेणी की अन्य छोटी अजागृत जातियों को उनका हिस्सा देने का विरोध किया है। श्रेणी के उप-वर्गीकरण का विरोध यही ताकतवर जातियां करती हैं। इसके पीछे असुरक्षा की भावना प्रबल रहती है। खुद का अस्तित्व व विकास केवल अपने जाति के आधार पर हम खोजते रहते हैं। इसका आधार संवैधानिक नहीं है, इसलिए – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व ओबीसी – अपने-अपने श्रेणियों के उप-विभाजन को अपनी जाति के आधार पर समर्थन व विरोध करते हैं।

जबकि प्रभुत्वशाली जातियां स्वयं के अंदर उप-वर्गीकरण का विरोध करती हैं।

यह देखा जा रहा है कि जाति के विनाश पर आधारित संविधान के बावजूद जातियां मजबूत हो रही हैं। इसकी जिम्मेदार प्रत्येक वर्ग-श्रेणी की प्रभुत्वशाली जातियां ही हैं।

क्रमश: जारी

(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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