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बिहार : उच्च शिक्षा की बदहाली से दलित-बहुजन छात्रों का भविष्य अंधकारमय

बिहार जैसे पिछड़े राज्य जहां, एक बड़ी आबादी आज भी उच्च शिक्षा से वंचित है, वहां सरकारी शिक्षण संस्थानों का महत्व और बढ़ जाता है। लेकिन बिहार में सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति जर्जर हो चुकी है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान वंचित तबकों को हो रहा है। कॉलेजों में सिर्फ डिग्रियां बांटी जा रही हैं। बता रहे हैं कुमार दिव्यम

बिहार में हुए जाति आधारित गणना के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में ग्रेजुएट की आबादी महज सात प्रतिशत है। पोस्ट ग्रेजुएट की बात करें, तो इनकी संख्या एक फीसदी से भी कम 0.82 प्रतिशत है। जबकि 22.67 प्रतिशत आबादी केवल पांचवीं तक ही पढ़ी है। इसके अलावा कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा 14.33 प्रतिशत, कक्षा 9 से 10 तक की शिक्षा 14.71 प्रतिशत और 12वीं तक की शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या 9.19 प्रतिशत है। इसमें सामान्य वर्ग में 14.53 प्रतिशत, पिछड़ा में 7.14 प्रतिशत, अतिपिछड़ा में 4.4 प्रतिशत, अनुसूचित जाति में 3.1 और अनुसूचित जनजाति में 3.53 प्रतिशत लोग ग्रेजुएट हैं। इस प्रकार करीब 85 फीसदी वाली उत्पीड़ित तबके में मात्र 18.17 प्रतिशत लोग ही ग्रेजुएट हैं। यह स्थिति ऐसे ही नहीं है, बल्कि इस तरह की परिस्थिति बना दी गई है।

बिहार जैसे पिछड़े राज्य जहां, एक बड़ी आबादी आज भी उच्च शिक्षा से वंचित है, वहां सरकारी शिक्षण संस्थानों का महत्व और बढ़ जाता है। लेकिन बिहार में सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति जर्जर हो चुकी है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान वंचित तबकों को हो रहा है। कॉलेजों में सिर्फ डिग्रियां बांटी जा रही हैं। पूरे बिहार में मुठ्ठी भर कॉलेज हैं, जहां नियमित कक्षाएं संचालित की जाती हैं। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों कर्मचारियों के पद बड़े पैमाने पर रिक्त हैं।

पहले से ही जर्जर और संसाधनों का अभाव झेल रहे विश्वविद्यालयों में नई शिक्षा नीति-2020 के लागू होने बाद और उसके अंतर्गत ‘चॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम’ तथा चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम ने कैंपसों में बहुस्तरीय शैक्षणिक अराजकता की एक नई स्थिति उत्पन्न कर दी है। कैंपसों से बड़े पैमाने पर वंचित गरीब तबके के लोग बाहर हो रहे हैं। कहना अतिरेक नहीं है कि कैंपसों को निजी हाथों में देने की साजिश रची जा रही है। वंचितों-गरीबों को कैंपसों से बाहर करने की नीतिगत षड्यंत्र किया जा रहा है।

शिक्षकाें-कर्मचारियों से रिक्त पड़े विश्वविद्यालय

आधारभूत संरचनाओं की कमी के साथ-साथ कॉलेजों में शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों की भी भारी कमी है। उदाहरण के लिए पटना विश्वविद्यालय में शिक्षकों के कुल स्वीकृत 917 पद हैं, जिसमें 512 शिक्षक ही कार्यरत हैं और स्थायी शिक्षक मात्र 300 हैं। अतिथि शिक्षकों की संख्या 212 है। ऐसे ही बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी मधेपुरा में 811 शिक्षकों के स्वीकृत पद हैं, जिसमें से 451 पदों पर शिक्षक कार्यरत हैं। इनमें स्थायी शिक्षकों की संख्या 302 तथा अतिथि शिक्षकों की संख्या 149 हैं।

शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है पटना विश्वविद्यालय

हालात का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के जगदम कॉलेज में जंतु विज्ञान के एकमात्र शिक्षक हैं, जो 11वीं से लेकर पीजी तक पढ़ाते हैं। स्वाभाविक है कि छात्राें की उपस्थिति दर्ज करने के अलावा कॉलेज में कुछ भी नहीं होता है। इसी कॉलेज के वनस्पति विज्ञान विभाग में एक ही शिक्षक हैं और वे भी अतिथि शिक्षक। उपर से परीक्षाओं का बोझ। शिक्षकों के सामने सवाल यह खड़ा हो जाता है कि वे अपना विभाग संभालें या कक्षा में छात्रों को पढ़ाएं।

अतिथि शिक्षकों के भरोसे विश्वविद्यालय

यह स्थिति सुदूर जिलों के कॉलेजों में ही नहीं, राजधानी पटना के कॉलेजों में भी है। उदाहरण के लिए पटना कॉलेज के समाज शास्त्र के पीजी विभाग में एक भी स्थायी शिक्षक नहीं है। स्थायी शिक्षक नहीं होने से विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारी इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष को दी गई है और उन्हें इस विभाग का कोऑर्डिनेटर बनाया गया है। पूरा विभाग अतिथि शिक्षकों के सहारे चल रहा है। यह हाल उस पटना विश्वविद्यालय के कॉलेज का है, जिसे बिहार भर के विश्वविद्यालयों में सबसे बेहतर माना जाता है।

उच्च शिक्षण संस्थानों में बदहाली का यह आलम बीआरबी कॉलेज, समस्तीपुर में भी दिखता है, जहां वनस्पति विज्ञान विभाग में एक भी शिक्षक नहीं है। यहां वर्ग का संचालन ही नहीं होता है। यही हाल बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी, मधेपुरा के सर नारायण सिंह कॉलेज में भूगर्भ शास्त्र विभाग का है। यहां एक ही शिक्षक हैं, उन्हें भी विश्वविद्यालय में डीन छात्र कल्याण संकाय बना दिया गया है। जाहिर तौर पर जिस विभाग में शिक्षक ही नहीं हैं, उन विभागों से उत्तीर्ण हो रहे छात्रों की डिग्रियों पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

2003 के बाद से नहीं हुई है गैर-शैक्षणिक कर्मियों की स्थायी नियुक्ति

बहरहाल, बिहार के विश्वविद्यालयों में गैर-शैक्षणिक कार्य करने वाले कर्मचारियों की बहाली लंबे समय से नहीं हुई है। पटना विश्वविद्यालय में 2003 के बाद से कर्मचारियों की कोई स्थायी नियुक्ति ही नहीं हुई है। हाल यह है कि विश्वविद्यालय में कुल आवंटित पदों के आधे कर्मचारी भी नहीं बचे हैं। कमोबेश यही हाल या इससे भी बदतर हाल राज्य के अन्य विश्वविद्यालयों के हैं। नई बहाली या तो अनुकंपा पर हुई है या फिर ठेके पर रखे गए हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कुमार दिव्यम

लेखक पटना विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में स्नातकोत्तर छात्र व स्वतंत्र लेखक हैं

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