h n

एससी, एसटी और ओबीसी से जुड़े आयोगों को लेकर केंद्र की नीयत में खोट : जी. करुणानिधि

सामान्य नीतिगत मामले हों या ओबीसी वर्ग की समस्याओं से जुडे मामले, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने प्रभावी ढंग से उनका प्रतिनिधित्व नहीं किया है। इसकी एक वजह यह भी है कि आयोग के पास अभी तक टीम की कोई पूरी संरचना नहीं है। पढ़ें, एआईओबीसी के महासचिव जी. करुणानिधि से यह साक्षात्कार

अनुसूचित जाति आयोग (एनसीएससी) और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में कई प्रमुख पदों पर ख़ाली पड़ी रिक्तियों का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। बीते 3 मार्च को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक्स पर जारी अपने संदेश में कहा कि “देशभर में हज़ारों दलित-पिछड़े न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। हर जगह जातिगत जनगणना की मांग गूंज रही है। ऐसे वक्त में भाजपा सरकार द्वारा जानबूझकर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने वाली संवैधानिक संस्थाओं में अहम पदों को ख़ाली रखना उनकी दलित-पिछड़ा विरोधी मानसिकता को दिखाता है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में ख़ाली पदों को भरने की मांग को लेकर केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री डॉ. वीरेंद्र कुमार को पत्र लिखा है।”

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष ने आरोप लगाया है कि इन संवैधानिक संस्थाओं में रिक्तियां भाजपा सरकार की दलित विरोधी मानसिकता को दर्शाती हैं। अखिल भारतीय अन्य पिछड़ा वर्ग कर्मचारी कल्याण संघ (एआईओबीसी) के महासचिव जी. करुणानिधि भी इस मुद्दे को उठाते आए हैं, सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा ने उनसे बातचीत की।

आप आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी संस्थाओं की अनदेखी कर रही है। क्यों और कैसे?

देखिए, इन संस्थाओं में कई प्रमुख पद अभी भी ख़ाली हैं। इन पदों को कौन भरेगा? राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की अध्यक्षता किशोर मकवाना कर रहे हैं। इसमें उपाध्यक्ष और एक सदस्य का पद ख़ाली है। इसी तरह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) में उपाध्यक्ष का पद एक साल से अधिक समय से खाली पड़ा है। इसके अलावा और भी कई रिक्तियां हैं, जो इन संस्थाओं के कामकाज पर बुरा असर डाल रही हैं। लंबे समय से यह आयोग साधारण फैसले नहीं ले पा रहे हैं। ज़ाहिर है इस सबकी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है।

लेकिन केंद्र सरकार का दावा है कि ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा उसने दिलाया। उसका तो यह भी कहना है कि वह इसके सफल संचालन के लिए सबसे ज़्यादा प्रतिबद्ध है।

यह सही है कि पहले संवैधानिक दर्जा एससी आयोग को उपलब्ध था, लेकिन ओबीसी आयोग के लिए कोई संवैधानिक स्थिति नहीं थी। इसके लिए हमने मांग की, आंदोलन किए। अंततः 2017 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार संवैधानिक दर्जा देने के लिए क़ानून लेकर आई। 2017 में राष्ट्रीय ओबीसी आयोग को संवैधानिक शक्तियां प्रदान की गईं। लेकिन तब भी वास्तव में, आयोग का ठीक से गठन नहीं किया गया। केवल 2019 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का पूर्ण गठन एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन सदस्यों के रूप में, क़ानूनी प्रावधानों के अनुसार हुआ। उसके बाद 2022 में इसका कार्यकाल समाप्त हो गया। हमने सोचा कि इसका गठन तुरंत किया जाएगा, लेकिन 2022 में जब आयोग का प्रारंभिक पहला कार्यकाल समाप्त हुआ, तो केवल अध्यक्ष की नियुक्ति की गई। हंसराज गंगाराम अहीर को अध्यक्ष के रूप में नामित किया गया। इसके बाद, मुझे याद है कि 2023 में एक सदस्य की नियुक्ति की गई। आयोग के लिए उपाध्यक्ष का नामांकन नहीं किया गया है। दो सदस्यों को नामित किया जाना था, जो नहीं किया गया। इसलिए हम कह रहे हैं कि इस सरकार की मंशा आयोग को प्रोत्साहित करने वाली नहीं रही है। जब संविधान में पूर्ण आयोग नियुक्त करने का प्रावधान है और आयोग का गठन नवंबर 1992 के फैसले के मद्देनजर किया गया है तो फिर पिछड़ा वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन ठीक से किया जाना चाहिए।

एआईओबीसी के महासचिव जी. करुणानिधि

आप कहना चाह रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग आयोग काम नहीं कर रहा है?

आयोग का कामकाज पूरी तरह से निराशाजनक है। एससी आयोग की तरह यहां भी उपाध्यक्ष नहीं है। कोई पूर्ण संरचना नहीं है। ओबीसी से जुड़ी शिकायतों, और कर्मचारियों से संबंधित मामलों में आयोग प्रभावी नहीं रहा है। सामान्य नीतिगत मामले हों या ओबीसी वर्ग की समस्याओं से जुडे मामले, आयोग ने प्रभावी ढंग से उनका प्रतिनिधित्व नहीं किया है। इसकी एक वजह यह भी है कि इस आयोग के पास अभी तक टीम की कोई पूरी संरचना नहीं है।

यह सब जानबूझकर किया जा रहा है, या मान लें कि अनजाने में, या फिर लापरवाही में ऐसा बस हो गया है?

नहीं! मुझे नहीं लगता कि यह अनजाने में किया गया है, क्योंकि इसी सरकार ने आयोग को संवैधानिक शक्तियां दी है। लेकिन दो साल बाद उन्होंने इसमें पदों पर लोगों को नामित किया। 2022 के बाद तीन साल तक, यानी अभी तक पूर्ण आयोग नहीं बनाया गया है। तो हम इससे क्या अनुमान लगा सकते हैं? निष्कर्ष यह है कि सरकार इन आयोगों को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। आप ऐसे समझिए। पिछड़ा वर्ग आयोग को एक सिविल कोर्ट की तरह शक्ति मिली हुई है। वे किसी भी अधिकारी को बुला सकते हैं। वे रिकॉर्ड की मांग कर सकते हैं। वे आधिकारिक तौर पर किसी भी स्थान पर जा सकते हैं। उनके पास इन सबके लिए संवैधानिक शक्ति है, इसलिए यह पिछड़े वर्गों के लिए उपलब्ध एक बहुत ही महत्वपूर्ण तंत्र है। इसका गठन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार किया गया है। अब चूंकि इसमें ही प्रमुख पद ख़ाली पड़े हैं तो इसका मतलब है कि पिछड़े वर्गों से जुड़े मुद्दों को इसके ज़रिए ठीक से संबोधित नहीं किया जा रहा है।

लेकिन इस आयोग ने इस बीच कोई तो अच्छा काम किया ही होगा?

कुछ भी नहीं। इससे पहले कम-से-कम 2019 से 2022 तक, यह एक पूर्ण संस्था थी, जिसके पास टीम की एक पूरी संरचना थी। तब हमने अखिल भारतीय चिकित्सा कोटा में [राज्यों द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेजों में] ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण के ग़ैर-क्रियान्वयन के संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा प्रस्तुत किया था। उसको आयोग ने गंभीरता से लिया। आयोग ने भारत सरकार के स्वास्थ्य सचिव को बुलाया और याचिकाकर्ता के रूप में मुझे भी बुलाया गया। यह 2020 के कोविड के दौरान हुआ। इसलिए वर्चुअली मेरा पक्ष पूछा गया। मैं आयोग के समक्ष वर्चुअल मीडिया के माध्यम से उपस्थित हुआ। अंत में आयोग ने स्वास्थ्य सचिव के साथ गहन चर्चा के बाद, एक निर्देश जारी किया कि पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाना है। यह एक महत्वपूर्ण बात थी, जो पहले के आयोग ने की थी। अब जबकि वर्तमान में इस आयोग का पूर्ण गठन नहीं हुआ है, तो बहुत सारे मामले लंबित हैं। एक महत्वपूर्ण मसला यह है कि पिछड़े वर्गों के लिए वर्तमान में [आरक्षण के लिए योग्यता] वार्षिक आय सीमा 8 लाख रुपए है। यह सितंबर, 2020 में ही समाप्त हो चुकी है, लेकिन 5 साल बाद भी 8 लाख की सीमा चल रही है। हमने कई बार सरकार और आयोग के सामने इसे बढ़ाने मांग रखी, लेकिन कोई सुन नहीं रहा है। इसी तरह बैंक का स्केल वन अधिकारी को ग्रुप ए के समकक्ष मान लिया गया है। इनको गैर-क्रीमी लेयर का प्रमाण पत्र नहीं मिल रहा। लाखों लोगों का मामला लंबित है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।

मगर प्रधानमंत्री तो कहते हैं कि वह स्वयं ओबीसी से आते हैं। उन्हें ओबीसी की सबसे अधिक चिंता है।

नहीं। इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है? आज़ादी के बाद का इतिहास उठाकर देखिए। वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कीं। अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षा में आरक्षण के प्रावधनों को लागू किया। क्या वे दोनों ओबीसी थे? मामला जाति का नहीं है, मसला नीयत का है। मौजूदा सरकार की नीयत पिछड़ों को कुछ देने की है ही नहीं।

राहुल गांधी ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में रिक्त पदों को भरने का मुद्दा उठाया है। क्या वह इस मसले का राजनीतिकरण कर रहे हैं?

नहीं। बिल्कुल नहीं। देखिए, एक बात मैं आपसे कहना चाहता हूं। आज भारत में हर मामला सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा ही है। सही है या ग़लत है, कुछ भी हो। यह राजनीति से जुड़ा हुआ है, क्योंकि हर राजनीतिक पार्टी को सार्वजनिक महत्व के मामलों को उठाना पड़ता है, जो भी समाज के लिए महत्वपूर्ण है। चाहे वह एक्स हो या वाई, कोई भी पार्टी हो, कोई न कोई तो इन्हें उठाएगा ही। ऐसे भी पिछड़ा वर्ग के लोग इस देश के बहुसंख्यक हैं। स्वाभाविक रूप से अगर कोई राजनीति कर रहा है तो उनके सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। सरकार को किसने रोका है कि इन मुद्दों पर समय रहते फैसला ले। राजनीति करने का मौक़ा भी तो सरकार ही दे रही है। इस मुद्दे को मैं उठाऊं या राहुल गांधी उठाएं, मुद्दा तो मुद्दा ही रहेगा न? और सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं, इस सवाल को कई संगठन, कई सांसद, और कई संस्थाएं उठा रही हैं। इसके जवाब में केंद्र सरकार के मंत्री ख़ामोश रह जाते हैं।

आयोगों से परे भी अगर हम देखें तो केंद्र सरकार के अधीन आरक्षित श्रेणी में कई पदों पर भर्तियां नहीं हो रही हैं। क्या यह सही है?

सिर्फ दलित और पिछड़े ही नहीं। अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर भी सरकार का रवैया सौतेला है। अल्पसंख्यकों की छात्रवृत्ति केंद्र सरकार ने यह कहकर समाप्त कर दी कि अगर वे पढ़ना चाहते हैं तो और भी छात्रवृत्तियां हैं। सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए अलग से छात्रवृत्ति क्यों हो? हम इस सरकार की मंशा को समझ पाने में नाकाम रहे हैं। सरकार के पास बहुमत है और वह इसका इस्तेमाल अपनी मर्ज़ी से कर रही है। संविधान जो कह रहा है, सुप्रीम कोर्ट जो कह रही है, उसकी अहमियत नहीं है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। दिल्ली के स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर में ईडब्लूएस श्रेणी के छात्रों की फीस शून्य है। ओबीसी छात्रों को यहां हर साल 56 हज़ार देने होते हैं। एम्स में ओबीसी को करीब डेढ़ हज़ार रुपए आवेदन शुल्क देना होता है, जबकि ईडब्लूएस श्रेणी में यह पांच सौ रुपए है। हमने इसकी शिकायत पिछड़ा वर्ग आयोग से, मंत्री से प्रधानमंत्री से, सबसे कर ली। लेकिन कुछ नहीं हुआ। ईडब्लूएस के लिए सालाना आय सीमा आठ लाख है, ओबीसी के लिए भी आठ लाख है। हमने इसके बारे में सामाजिक न्याय मंत्री के ज़रिए प्रधानमंत्री को पत्र भेजा है, लेकिन हम अभी तक जवाब के इंतज़ार में हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

‘कुंभ खत्म हो गया है तो लग रहा है हमारे दुख कट गए हैं’
डेढ़ महीने तक चला कुंभ बीते 26 फरवरी, 2025 को संपन्न हो गया। इस दौरान असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, जिनमें दिहाड़ी मजदूर से लेकर...
जवाबदेही और जिम्मेवारी
डॉ. बी.आर. आंबेडकर मानते थे कि स्वतंत्रता और समानता के बीच में “भाईचारे के बगैर सहज संबंध नहीं हो सकता” और भाईचारा जिम्मेवारी के...
आंखन-देखी : कुंभ में दक्खिन टोले के वाशिंदे
कुंभ में ठेके पर काम करने वाले सफ़ाईकर्मियों को चिंता है कि हर साल की तरह इस बार भी उनका आख़िरी एक महीने का...
सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के घटने और निजी क्षेत्र में बढ़ने से क्या खो रहे हैं दलित, आदिवासी और ओबीसी?
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था को ऐसी शक्ल पिछले 25 वर्षों में दे दी गई है कि सवर्णों को बहुलांश नौकरियों...
विद्रोह नहीं तो साहित्य नहीं, 19वें विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में बोले कंवल भारती
सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर यह मांग भी की गई कि सावित्रीबाई फुले की सह-शिक्षिका फातिमा शेख के लिए एक स्मारक बनाया जाए। इसके...