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यूपी : विधानसभा में उठा प्रांतीय विश्वविद्यालयों में दलित-बहुजन शिक्षकों के उत्पीड़न का सवाल

कुलपतियों की नियुक्ति में वर्ग विशेष के दबदबे पर सवाल उठाते हुए डॉ. संग्राम यादव ने कहा कि “विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों में एक ख़ास जाति व वर्ग के लोग कुलपति के रूप में नियुक्त हो रहे हैं। जब एक ही वर्ग के लोग नियुक्त होंगे तो दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक समाज के लोग कहां जाएंगे?” पढ़ें, यह खबर

उत्तर प्रदेश विधानसभा में समाजवादी पार्टी के दो विधायकों संग्राम सिंह और आर.के. वर्मा द्वारा सूबे के दलित-बहुजन शिक्षकों के उत्पीड़न का सवाल उठाया गया। इसके अलावा सूबे के तमाम राज्य विश्वविद्यालयों में वरिष्ठता सूची को दरकिनार करके जूनियर प्रोफ़ेसर को कुलपति नियुक्त करने, जाति और वर्ग विशेष के लोगों को कुलपति बनाए जाने, नवनियुक्त कुलपतियों द्वारा मनमाने और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से चहेते और जाति विशेष के शिक्षकों और अभ्यर्थियों की प्रोन्नति और नियुक्ति देने, आरक्षित वर्ग के शिक्षकों की प्रोन्नति रोकना, एनएफएस का दुरुपयोग करके आरक्षित वर्ग के लोगों को विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व से वंचित रखना और शिक्षकों की नियुक्ति वाले कार्य परिषद का 10 साल से गठन न होने से शिक्षकों की भर्ती में आरक्षित वर्ग की अनदेखी और प्रोफ़ेसर ऑफ प्रैक्टिस (विविध क्षेत्रों के अनुभवी पेशेवर जो प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए जाते हैं) की भर्ती व्यवस्था पर जमकर सवाल उठाया गया। 

बीते 4 मार्च, 2025 को सपा विधायक डॉ. संग्राम यादव ने नियम 56 के अंतर्गत विशेष चर्चा में सदन को संबोधित करते हुए राज्य विश्वविद्यालयों के कार्य परिषद का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालयों का कार्य परिषद सर्वोच्च कार्यकारी निकाय होता है। नियमतः परिषद में कई वरिष्ठ शिक्षक/प्रोफेसर और कुलपति द्वारा नामित 3 सदस्य और विश्वविद्यालय के कोर्ट द्वारा चुने हुए 4 सदस्य होते हैं। इन सभी 7 सदस्यों में विश्वविद्यालय कोर्ट द्वारा चुने हुए चार सदस्य महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये किसी की कृपादृष्टि पर नहीं, बल्कि कोर्ट द्वारा चुनकर आते हैं।

विधायक ने सदन को आगे बताया कि पिछले 10 साल से कार्य परिषद का चुनाव नहीं हो पा रहा है, जो कि यूपी राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम-1973 का उल्लंघन है। शिक्षकों के चयन में निष्पक्षता के साथ आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के हितों की दृष्टिगत कार्य परिषद का चुनाव कराया जाना आवश्यक है। उन्होंने आगे कहा कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. आलोक कुमार राय द्वारा मनमाने, पक्षपाती और द्वेषपूर्ण ढंग से किसी चहेते शिक्षक को नियम विरुद्ध तरीक़े से प्रोन्नति और नियुक्ति देना और आरक्षित व अल्पसंख्यक वर्ग के शिक्षकों की नियुक्ति नहीं देना उनके पक्षपाती आचरण के प्रमाण हैं। इतना ही नहीं, वनस्पति विज्ञान, गणित, दर्शनशास्र, हिंदी, अरबी, पर्सियन आदि अन्य विभागों में खाली पदों पर नियुक्ति और प्रोन्नति नहीं की जा रही है।

डॉ. संग्राम यादव ने सदन में अयोग्य लोगों को प्रोफ़ेसर ऑफ प्रैक्टिस व्यवस्था द्वारा फायदा पहुंचाने के मामले को उठाते हुए कहा कि विश्वविद्यालय में यूजीसी की व्यवस्था के अनुसार प्रोफ़ेसर ऑफ प्रैक्टिस के पदों पर नियुक्ति हेतु विज्ञापन 9 दिसंबर 2024 निकाला गया, जिसमें वेतन का कोई मानक निश्चित नहीं है। जबकि उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 के तहत प्रोफ़ेसर ऑफ प्रैक्टिस की भर्ती की कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसी तरह लखनऊ विश्वविद्यालयों समेत प्रदेश के तमाम विश्वविद्यालयों में आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियो को नॉट फाउंड सूटेबल (एनएफएस) करार दे दिया जाता है। वस्तुतः यही स्थिति हर विश्वविद्यालय में एक जैसी है। नियुक्ति प्रकिया पारदर्शी न होने से एनएफएस पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा है, जिससे योग्य शिक्षकों और अभ्यर्थियों की प्रोन्नति और नियुक्ति नियम विरुद्ध होने से विश्वविद्यालय के शिक्षकों और अभ्यर्थियों में आक्रोश व्याप्त है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा

उऩ्होंने सत्ताधारी पार्टी पर दलित-बहुजन अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ साजिश करने का आरोप लगाते हुए कहा कि जबसे यूपी में भाजपा की सरकार है, वह लगातार इस साजिश में लगी हुई है कि कैसे लगातार पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) समाज के लोगों को मिले संविधान प्रदत्त अधिकार न दिए जाएं और आरक्षण की व्यवस्था को कमज़ोर किया जाए? लगातार कोई न कोई नियम बनाकर पीडीए समाज के लोगों के हक़ों को मारने का काम सरकार के द्वारा किया जा रहा है। 

कुलपतियों की नियुक्ति में वर्ग विशेष के दबदबे पर सवाल उठाते हुए उऩ्होंने कहा कि “विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों में एक ख़ास जाति व वर्ग के लोग कुलपति के रूप में नियुक्त हो रहे हैं। जब एक ही वर्ग के लोग नियुक्त होंगे तो दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक समाज के लोग कहां जाएंगे? जितने आप राज्य विश्वविद्यालय बना रहे हैं, उनमें प्रोफ़ेसरों, असिस्टेंट प्रोफ़ेसरों, एसोसिएट प्रोफ़ेसरों की जो नियुक्ति हो रही है, उनमें 1973 के अधिनियम के तहत हमें जो हक़ और प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, आप उसे किनारे कर दे रहे हैं।”  

सवर्ण कुलपतियों के नियुक्ति के क्रम में उऩ्होंने राधाकृष्ण कृषि विश्वविद्यालय, संपूर्णानंद कृषि विश्वविद्यालय, रज्जूभैय्या राज्य विश्वविद्यालय, राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय आदि के नाम लिए। उन्होंने आगे कहा कि बड़े संघर्षों से मंडल आयोग की सिफारिशें उच्च शिक्षण संस्थानों में लागू हुई थीं। लेकिन ओबीसी, दलित और आदिवासी वर्ग के लोगों की विश्वविद्यालयों में भागीदारी बहुत कम है। आज जो कुलपति नियुक्त हो रहे हैं, वे कुलपति असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और उसके नीचे की भर्तियां कर रहे हैं। उनमें धांधली और भ्रष्टाचार व्याप्त है।

उन्होंने कहा कि “हालिया स्थापित महराज सुहेलदेव राज्य विश्वविद्यालय, आजमगढ़ की आप समीक्षा कर लीजिए तो पाएंगे कि आरक्षण में सबसे ज़्यादा विसंगति वहां हुई है। इलाहाबाद लॉ विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति का मामला देख लीजिए। वहां पर मिलेगा कि सरकार दलित व पिछड़ा वर्ग को दरकिनार कर रही है। वरिष्ठता सूची को दरकिनार करके जूनियर प्रोफ़ेसर को कुलपति बना दिया जाता है। यह नियुक्ति राज्यपाल के माध्यम से होती है। लेकिन इसमें भारी पक्षपात और मनमानी देखी गई है। कुलपति के पद पर अधिकतम दो बार नियुक्ति पाने की सीमा निर्धारित है, लेकिन जाति व वर्ग विशेष के लोगों की बार-बार नियुक्ति की जाती है।

इसके बाद विधायक आर.के. वर्मा ने विधानसभा में लखनऊ विश्वविद्यालय में ग़लत नियुक्तियों और प्रोन्नतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि “प्रो. संगीता साहू लोक प्रशासन की प्रोफ़ेसर हैं। इनकी शैक्षिक योग्यता कम होने की वजह से राज्यपाल द्वारा एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद से इनकी नियुक्ति निरस्त कर दिया गया। विसंगति यह पैदा होती है कि लखनऊ के कुलपति द्वारा उन्हें प्रोफ़ेसर बनाकर कार्य लिया जा रहा है। इसी तरह दूसरी नियुक्ति मानवशास्त्र विभाग में केया पांडेय की है। यह एक पद पर दो नियुक्तियों का मामला है। उनके पहले इस पद पर दूसरे शिक्षक कार्य कर रहे थे। उनके बावजूद इस पद पर इनका चयन करके इनसे कार्य लिया जा रहा है। यह कैसे संभव है कि एक पद पर दो लोग नियुक्त हों और कार्य करें? यह जांच का विषय है। इसी तरह तीसरी नियुक्ति अवधेश तिवारी की है। इनकी नियुक्ति लेक्चरर के पद पर होती है। आज तक वो नियमित नहीं किये गए। स्थायित्व का प्रमाणपत्र उन्हें नहीं मिला। यूपी राज्य विश्वविद्यालय अधियनियम-1973 कहता है कि नियुक्ति के एक वर्ष के भीतर यदि सेवाएं संतोषजनक हैं तो उसको स्थायित्व प्रमाणपत्र दिया जाना चाहिए और नियमानुसार उसका प्रमोशन होना चाहिए। इन्हें स्थायित्व का प्रमाणपत्र नहीं मिला। इसके बावजूद इन्हें प्रमोशन दे दिया गया।”

इसके बाद आर. के. वर्मा ने सदन में दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के प्रोफ़ेसरों के उत्पीड़न और उनके प्रमोशन रोकने के मामले को उठाया। उऩ्होंने कहा कि लखनऊ विश्वविद्यालय में दलित और मुस्लिम प्रोफ़ेसर का उत्पीड़न किया गया और द्वेष की भावना के चलते उनकी नियुक्ति रोकी गई और उऩ्हें अन्य सुविधाएं भी नहीं दी गईं। डॉ. अरशद अली ज़ाफ़री दर्शनशास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर हैं। चयन समिति के द्वारा पिछले पांच सालों से उनको प्रोफ़ेसर नहीं बनाया जा रहा है। इसी तरह डॉ. रविकांत पर कुलपति की सहमति से हमला किया गया और ख़ुद उन्हीं के ख़िलाफ़ केस लिखवा दिया गया। उनका प्रमोशन भी रोककर रखा गया है। उऩ्हें रहने के लिए आवास तक आवंटित नहीं किया गया है।

उन्होंने आगे कहा कि लखनऊ विश्वविद्यालय के साथ ही उत्तर प्रदेश के 24 राज्य विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जिनके कुलपति या कार्य परिषद द्वारा लगातार नियमों की अनदेखी, यूपी राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम-1973 की अनदेखी, स्वेच्छाचारिता की भावना से नियम विरुद्ध अयोग्य लोगों को जिनकी शैक्षिक पात्रता नहीं है, उनकी नियुक्ति और प्रमोशन किया जा रहा है। जबकि नियमों के अनुसार जिनका प्रमोशन होना चाहिए, उनका प्रमोशन रोकने की कार्रवाई लगातार उत्तर प्रदेश में चल रही है। इससे शिक्षकों का मनबोल और शैक्षणिक वातावरण लगातार गिरता जा रहा है।

उन्होंने आगे कहा कि “कार्य परिषद द्वारा जब शिक्षकों का चयन किया जाता है तब पिछड़े और अनुसूचित जाति समाज के अभ्यर्थियों के साथ न्याय इसलिए नहीं किया जाता है क्योंकि उस कार्य परिषद में जो पिछड़े और अनुसूचित जाति के सदस्य होते हैं, वे कुलपति की कृपा दृष्टि पर चयनित किये गए होते हैं। इसलिए कभी उनके हक़ के लिए न्याय के लिए वो आगे आने का कार्य नहीं करते। इसलिए सरकार को सुझाव है कि इनके चयन के लिए एक पारदर्शी प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए।” 

उन्होंने आगे कहा कि वरीयता के आधार पर रोटेशन का क्रम लगा करके जब इनका चयन किया जाएगा तो निश्चित रूप से पिछड़े दलित अभ्यर्थियों के साथ न्याय करने का काम कर सकेंगे।

विधायक आर.के. वर्मा ने आगे कहा कि लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र, अरबी, गणित, हिंदी आदि विभागों में आरक्षित पद खाली पड़े हुए हैं। लेकिन इन विभागों में नियुक्ति की मंशा कुलपति की इसलिए नहीं है क्योंकि इससे विशुद्ध रूप से दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदाय के अभ्यर्थियों का चयन होगा। जातिवाद भावना से ग्रसित होकर ये कार्रवाईयां गतिमान हैं। विज्ञापन निकाले हुए पांच साल हो चुके हैं। ये पद आरक्षित वर्ग के हैं, इनको भरा जाना चाहिए। लेकिन उनमें नियुक्तियां नहीं की गई हैं। ऐसे कृत्य कई अन्य विश्वविद्यालयों में भी किए जा रहे हैं। सरकार इनकी जांच करवाए।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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