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‘फुले’ फिल्म को साजिशन अर्थहीन बनाती सेंसर की कैंची

फिल्म को मूलतः 11 अप्रैल – जोतीराव फुले की जयंती – के मौके पर रिलीज़ किया जाना था। मगर अब इसे 25 अप्रैल को रिलीज़ किया जाएगा। क्यों? कारण है अखिल-भारतीय ब्राह्मण समाज और परशुराम विकास महामंडल जैसी संस्थाओं का विरोध, जिनका आरोप है कि यह फिल्म ब्राह्मणों का अपमान करती है और जातिवाद को बढ़ावा देने वाली है। यही नहीं सेंसर बोर्ड ने इस मामले में अपनी टांग फंसा दी है। पढ़ें, नीरज बुनकर की यह रपट

फुले दंपत्ति की क्रांतिकारी ज़िंदगी पर आधारित फिल्म ‘फुले’ का 24 मार्च को जारी ट्रेलर को देखकर लगा था कि यह फिल्म उनके जीवन का चित्रण शानदार तरीके से करेगी। सच्चे अर्थों में नायक इस दंपत्ति ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी, विधवा पुनर्विवाह के लिए लड़ाई लड़ी, दमितों और उनमें भी विशेषकर लड़कियों को शिक्षित किया और धार्मिक रुढ़ियों को तार्किकता की कसौटी पर कसने को प्रोत्साहन दिया। फिल्म को यदि अपने इन दोनों मुख्य पात्रों का सचमुच सम्मान करना था, तो उसे उनकी क्रांतिकारिता का खुलकर, बिना किसी लाग-लपेट के चित्रण करना था कि उन्होंने जाति प्रथा से कैसे मुकाबला किया, हिंदू धर्म के दकियानूसीपन और पाखंड का कैसे पर्दाफाश किया और सदियों पुरानी सामाजिक बेड़ियों को कैसे तोड़ा। फिल्म उद्योग अक्सर जाति को वर्ग का जामा पहना देता है। ऐसे में ऐसा लग रहा था कि यह फिल्म एक नया इतिहास लिखेगी। यह मुख्यधारा की ऐसी फिल्म बनेगी जो भारत की सबसे पुरानी विभाजक रेखाओं से हमारा साबका करवाएगी।

मगर अफ़सोस कि फिल्म की राह में कई रोड़े आ गए। फिल्म को मूलतः 11 अप्रैल – जोतीराव फुले की जयंती – के मौके पर रिलीज़ किया जाना था। मगर अब इसे 25 अप्रैल को रिलीज़ किया जाएगा। क्यों? कारण है अखिल-भारतीय ब्राह्मण समाज और परशुराम विकास महामंडल जैसी संस्थाओं का विरोध, जिनका आरोप है कि यह फिल्म ब्राह्मणों का अपमान करती है और जातिवाद को बढ़ावा देने वाली है। यही नहीं सेंसर बोर्ड ने इस मामले में अपनी टांग फंसा दी है। वह ऐसे दृश्यों को हटाना या बदलना चाहता है जो सदियों से चले आ रहे उस दमन को चित्रित करते हैं, जिसके खिलाफ फुले दंपत्ति ने लंबी लड़ाई लड़ी थी। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जातिगत श्रेष्ठता के खिलाफ लड़ने वाले एक दंपत्ति पर फिल्म को उस सामाजिक व्यवस्था के पैरोकारों को संतुष्ट करने के लिए सेंसर किया जा रहा है, जिस सामाजिक व्यवस्था का उन्होंने विरोध किया था?

सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म में काट-छांट के कुछ नमूने देखिए। एक दृश्य, जिसमें एक व्यक्ति अपनी कमर से झाड़ू बांधा हुआ है, की जगह स्कूल में पढ़ाने जाती सावित्रीबाई फुले पर गोबर फेंकते लड़कों का दृश्य डाल दिया गया है। जबकि मूल दृश्य काल्पनिक नहीं था। पेशवाओं के शासन में अतिशूद्रों (अछूतों) को उनके पैरों के निशान मिटाने के लिए यही करना होता था। मूल दृश्य अपमान की पराकाष्ठा को दिखाता था। नया दृश्य भी यादों को वापस लाता है, मगर उसमें वह विशिष्टता नहीं है। वह ऐतिहासिक संदर्भ नहीं है, जो मूल दृश्य में था। संवादों के साथ भी ऐसा ही कुछ किया गया है। जैसे कि एक डायलॉग में कहा गया था कि “जहां शूद्रों को झाड़ू बांधकर चलना चाहिए” की जगह इस डायलॉग ने ले ली है– “क्या हमें सबसे दूरी बनाके रखना चाहिए?” जाहिर है कि मूल पंक्ति निम्न जातियों के अमानवीयकरण को स्वीकृति देती थी और एक चुभने वाली बात कहती थी। वहीं उसका विकल्प दार्शनिक मिजाज़ का है और अपना पैनापन खो देता है।

इसी तरह भारत की तीन हज़ार साल पुरानीजातिगत गुलामी की परंपरा को साफ़ शब्दों में कटघरे में खड़ा करने वाले वाली पंक्ति की जगह अब फिल्म इस परंपरा को केवल “कई साल पुरानी” बताती है। इससे इस परंपरा के अति-प्राचीन होने की बात दब जाती है। यह अंग्रेजी राज के पहले इस सामाजिक व्यवस्था के पैराकारों को जवाबदेही से बचाने का अप्रत्यक्ष प्रयास है। इसी तरह मांग और महार जैसी विशिष्ट जातियों – जो दलित प्रतिरोध के केंद्र में थीं – के नाम इस आधार पर गायब कर दिए गए हैं कि यह फूहड़ता है और इसे “ऐसी छोटी-छोटी जातियां” से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि जातियों के नाम चोट पहुंचाने वाले हैं, उनका दमन नहीं।

उपनामों में “जाति” शब्द के स्थान पर “वर्ण” का प्रयोग किया गया। “वर्ण” शब्द का इस्तेमाल हिंदू कट्टरपंथ के समर्थकों द्वारा यह जताने के लिए किया जाता है कि सामाजिक पदक्रम में किसी व्यक्ति की स्थिति पेशे से निर्धारित होती थी, जन्म से नहीं। यह सच्चाई को तोड़ने-मरोड़ने के अलावा कुछ नहीं है। फिल्म में जो संपादन किये गए हैं, वे उसके नॅरेटिव को कमज़ोर बनाते हैं। इतना ही नहीं, वे इतिहास को फिर से लिखते हैं और फुले दंपत्ति के संघर्ष के पैनेपन को भोंथरा बनाते हैं।

अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘फुले’ के एक पोस्टर में जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले की भूमिका निभानेवाले कलाकार क्रमश: प्रतीक गांधी व पत्रलेखा

फुले इसलिए क्रांतिकारी थे, क्योंकि उन्होंने अपने शत्रु का नाम लेने से कभी परहेज नहीं किया। वे साफ़ कहते थे कि उनकी दुश्मन जाति-व्यवस्था है, जिसे धार्मिक मान्यता हासिल है और जिसे हिंसा और धार्मिक रीति-रिवाजों के ज़रिए लागू किया जाता है। और उन्होंने सिर्फ इस व्यवस्था की किताबी आलोचना नहीं की। उन्होंने अपने विचार ज़मीन पर उतारे – लड़कियों के लिए स्कूल खोले, धमकियों का मुकाबला किया और समानता व तार्किकता पर आधारित एक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण किया। उन्हें किसी भी और रूप में दिखाना, उनकी विरासत के साथ विश्वासघात होगा।

मगर सेंसर बोर्ड की सोच एकदम उलटी है। जो लोग जातिवाद को जिंदा रखे हुए हैं, वे जातिवादी नहीं हैं। जो उसका पर्दाफाश कर रहे हैं, वे जातिवादी हैं। यह एक व्यापक पाखंड का हिस्सा है। दक्षिणपंथी नेतागण जोतीराव फुले की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनकी मूर्तियों को माला पहनाते हैं, मगर ज्योंही फुले के तर्क उनकी विश्वदृष्टि का खंडन करते दिखते हैं, वे तुरंत पीछे हट जाते हैं। जैसे ही अतीत में उनकी भूमिका को सबके सामने रखा जाता है, ब्राह्मणवादी विरासत के पैरोकार चीखने-चिल्लाने लगते हैं कि इससे समाज विभाजित होगा। मगर वे उस जातिवाद पर प्रश्न उठाने से सख्त परहेज करते हैं, जो उनकी परंपराओं का हिस्सा है।

सेंसर बोर्ड को निष्पक्ष होना चाहिए। मगर उस पर ब्राह्मणवादी और सवर्ण सोच हावी है। जिस देश के 80 फीसद रहवासी दलित या ओबीसी हैं, उस देश में उनका दमन और फुले दंपत्ति का प्रतिरोध भला कैसे विवाद का विषय बन सकते हैं। जाति-विरोधी और क्रांतिकारी समाज सुधारकों के जीवन पर बनी इस फिल्म की रिलीज़ में देरी और उसमें से अंतस को झकझोरने वाले हिस्सों की काट-छांट से कई प्रश्न उपजते हैं। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले का जीवन अतीत को न भूलने और उसके लिए जवाबदेही मांगने का आह्वान करता है। मुझे पहले लगा था कि ‘फुले’ फिल्म एक नया अध्याय खोलेगी, जिसमें मुख्यधारा के फिल्में जाति से डटकर मुकाबला करेंगे। मगर अब मुझे लगता है कि यह फिल्म उस व्यवस्था का शिकार बन गई है, जो चीज़ों को स्वीकार करने की बजाय उन्हें मिटा देने में विश्वास रखती है। फुले दंपत्ति की विरासत के साथ बेहतर सुलूक होना चाहिए। और भारत के साथ भी जो अब भी उसी अंधेरे में घिरा हुआ है, जिसे वे दोनों मिटाना चाहते थे।

(मूल आलेख पूर्व में अंग्रेजी में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित व यहां लेखक की सहमति से हिंदी अनुवाद प्रकाशित है)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)   

लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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