महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग में पी.एच-डी. शोधकार्य कर रहे देवानंद कुंभारे ने मुझे फारवर्ड प्रेस का एक अंक देकर इस पत्रिका से रूबरू करवाया। उन्होंने मुझे बताया की यह पत्रिका दलित, आदिवासी, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी नजर आती है। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि यह पत्रिका पिछड़े वर्ग को केंद्र में रखकर निकाली जाती है तथा फुले, शाहूजी, पेरियार एवं आंबेडकर की परंपरा को आगे बढ़ा रही है। यह बहुत बड़ी बात है। उन्होंने आगे कहा कि यह कार्य पूरे बहुजन समाज के लिए हो रहा है, जिसके लिए बुद्ध से लेकर कांशीराम ने काम किया। फि लहाल तो इस तरह की पत्रिका पूरे भारत में नहीं है, जो कि बहुजन वैचारिकी को लेकर कार्य कर रही हो। मुझे भी इस पत्रिका के तेवर के साथ-साथ उसका कलेवर भी बहुत ही अच्छा लगा। द्विभाषी होने के कारण इस पत्रिका को हिंदी व अंग्रेजी के लेखक, चिंतक, पाठक पढ़ सकते हैं। यह पत्रिका बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी के सभी पक्षों को बखूबी उठाती रही। इस तरह से बहुजन समाज को डॉ. आंबेडकर के विचार से साक्षात्कार कराना ही बहुत बड़ी बात है। फारवर्ड प्रेस ने जनता व सत्ता के बीच मिथकों को लेकर वैज्ञानिक चेतना के साथ नए विमर्शों को पैदा किया। इस पत्रिका से मैंने अपने घर, के साथ सभी रिश्तेदारों को जोड़ा था। मेरे ओबीसी परिवार के होने की वजह से यह पत्रिका मेरे परिवार, रिश्तेदारों में ज्ञान का नया स्रोत बन गई थी। जब सूचना मिली कि पत्रिका का प्रिंट संस्करण अब बंद होने वाला है तथा अब यह सिर्फ वेबसाईट के रूप में होगी तो मुझे गहरा धक्का लग -और लगना भी चाहिए। भारत में पत्रिका प्रिंट मोड में ही सार्थक है। गाँव-देहात में ऐसी पत्रिका की एक प्रति को बहुत सारे लोग पढ़ते है। पत्रिका का मुद्रित संस्करण बंद होना बहुजन वैचारिकी में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों के लिए बहुत ही दुखद है। भारतीय इतिहास में नए तरह के तेवर व कलेवर के साथ बहुजन वैचारिकी पर केन्द्रित यह पहली व सफल पत्रिका है। संपादक मंडल, स्वामी आदि से निवेदन है कि पत्रिका को प्रिंट मोड में फि र से जरूर निकालें। बहुजन भारत को इस पत्रिका की आवश्यकता है। प्रिंट माध्यम में इसका नहीं आना बहुजन वैचारिकी के लिए बहुत बडी बौद्धिक क्षति होगी।
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)